कबीर के दोहे – (Couplets of Kabir called ‘Teachings of Kabir’) साधारण हिन्दी में.

These teachings are based on instances of daily routine life of people of that time, some 550years before. So only those which could be understood by all be translated and if there is any resemblance with Tao etc then it will also be tried to explain from that perspective. सामान्यत: कबीर के दोहे उस समय की प्रचलित भाषा में मिलते हैं. जिनका अर्थ जानना कई हिन्दीभाषी लोगों के लिए भी कठीन हो जाता है. इसके कारण कबीर के अमुल्य ‘सीखें’ -जो साखी के नाम से जानी जाती हैं- कई लोगों तक नहीं पहूँच सकी. एक प्रयास है कि विदेशी भी यदी हिन्दी जानता हो तो भी उन दोहों के पीछे छुपे अर्थ जानकर अपने व्यक्तित्व में ढाल सकें।

Sandeep Kumar Verma
4 min readDec 7, 2019

कथा कीर्तन कुल विषय, जो छोड़े वह पाय।

कहत कबीरा इस जगत में, नाहीं और उपाय।।

2. जहाँ ग्राहक तहां हूँ नहीं, जहाँ हूँ तहां ग्राहक नहीं।

मूरख यह भरमत फिरै, पकड़ शब्द कि छांह।।

3. कहता तो बहुत मिलै, गहता मिले ना कोय।

जो कहता वह जान ले, वो नहीं गहता होय।।

4. तब लग तारा जगमगै, जब लग उगै ना सूर।

तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर।।

5. सोना पानी साधूजन, टूट जुड़े सौ बार।

अज्ञानी कुम्भ कुम्हार के, एक ही धक्के में दरार

6. सब आए इस एक में, डाल पात फल फूल। कबीरा पीछे क्या रहा ? गह पकड़ी जब मूल॥

7. जो जन भीजे नाम रस, विगत कबहूँ ना रूख। अनुभव आव न दीसते, ना सुख ना दु:ख॥

8. सुरती को समझा करो, ज्यों गागर पनिहार।

हौले हौले सुरत होय, कहे कबीर विचार॥

9. गारी ही सों उपजे, कलह कष्ट और खींच।

हारी चले सो साधू है, लागी चले सो नीच॥

10. आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक।

कह कबीर नहीं उलटीए, वही एक की एक॥

11. जो नहीं जाने जीव आपना, करहीं जीव बार बार।

जीवा एसा जानना, जन्मे न दूजी बार॥

12. कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार।

है जैसा तैसा हो रहे, कहे कबीर विचार॥

13. जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सब आस।

मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास॥

14. आए हैं सो जाएंगे, राजा रंक फकीर।

एक सिंहासन चढ़ी चले, एक बंधे जंजीर॥

15. आया था किस काम को, तू सोया चादर तान। सुरत संभाल रे गाफिल, अपना-आप पहचान॥

16. कबीर संगत साधू की, ‘जौ’ की भूसी खाय।

खीर खांड भोजन मिले, साकट संग न जाय॥

17. एक से अनन्त होय है, अनंत से एक ना होय। कबीर एक जो जान लिया, अनंत जाने सोय॥

18. कबीर गर्व ना किजीए, उँचा देखी आवास।

काल पड़ो भुमी लेटना, उपर जमसी घॉँस॥

19. आज काल के पांच दिन, जंगल होगा वास।

उपर उपर लोग फिरे, ढोर चरेंगे घास॥

20. क्या है भरोसा देह का, नष्ट हो जात क्षण मांही। सॉंस सॉंस सुमिरन करो, और जतन कुछ नाहीं॥

21. हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलावनहार।

हौले हौले तर गये, लिया जिन सर भार॥

22. यह तन काचा कुंभ है, लिया फिरता था साथ। धबका लागा फूट गया, कुछ न आया हाथ॥

23. कबीर धूली सकेली के, पूड़ी जो बांधी येह।

चार दिवस का पैखना, अंत खेह की खेह॥

24. कबीर सपने रैन के, उघड़ी आए नैन।

जीभर बहु लूटी मैं, जागूं तो लेन न देन॥

25. जाती वर्ण सब खोय के, भक्ति करे चित लाय।

कहै कबीर सतगुरू मिले, आवागमन नशाय॥

26. दुनिया ने धोखे से, चली कुटुम्ब की चाल।

तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरेंगे मसान॥

27. कुल खोए कुल उबरे, कुल राखे कुल जाय।

गुरू कुल भेंटिया, सब कुल गया मिलाय॥

28. पाव पलक की सुधी नहीं, करे काल का साज। काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज॥

29. क्या किया हमने आकर, कहॉं को हम जाँए। इधर के रहे ना उधर के, चले मूल गंवाँए॥

30. रात गँवाई सोकर, दिन गँवाया खाय।

हीरा जन्म अमूल्य है, कौड़ी बदले जाय॥

31. कहता हूँ कहते जाता हूँ, कहूँ बजाए ढोल।

श्वास खाली जाती है, जिसका तीन लोक का मोल॥

32. भगती बिगाड़ी कामी ने, इन्द्रियों के स्वाद।

हीरा खोया हाथ से, जन्म गँवाए बाद॥

33. यह तन विष की बेल है, गुरू अमृत की खान।

शीष देकर जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान॥

34. यह बाजी तो फिर नहीं, मन में देख विचार।

आया इसे जीतने को, जन्म जुआँ मत हार॥

35. तीन लोक चोरी भये, सबका धन हर लीन।

बिना सीस के चोर ने, पड़ा न किसी को चिन्ह॥

36. सीखें तो बहुत सुनी, मिटा न मन का मोह।

पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह॥

37. जितनी लहरें समुद्र की, उतनी. मन की दौड़।

सहज ही हीरा पाइये, जो मन लागे एक ठौर॥

38. समुद्र नहीं सीप बिना, स्वाती बूँद भी नहीं।

कबीर मोती बन गया, जो शून्य की बूंद गह गाँठी॥

39. हंसा बगुला एक सा दिखे, मानसरोवर मांही। हंसा तो मोती चुगै, बगुला मछली खाहीं॥

40. कबीर लहरें समुद्र की, मोती बिखरे आय।

बगुला पहचाने नहीं, हंसा चुगी चुगी खाय॥

41. कबीरा गंदे नाले का, पानी पीये नहीं कोय। जाकर मिले जब गंगा में, तो गंगाजल होय॥

42. करता था तो क्यों करता रहा? अब करी क्यों पछिताय।

बोया पेड़ बबूल का, आम कहॉं से खाय॥

43. कस्तूरी कुन्डल बसै, मृग ढूँढे वन मॉंही।

एसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहीं॥

44. कबीरा मन ही गयन्द है, अंकुश दे दे राखुं।

विष की बेली परीहरि, अमृत का फल चाखूं॥

45. कबीरा आप ठगाइये, और न ठगीये कोय।

आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुख होय॥

46. जो तुझे कांटे बोये, उसको बोय तु फूल।

तुझको फूल ही फूल है, उसको है त्रिशूल॥

47. नैनन में जहाँ पूतली, मालीक प्रगटे उस मॉंही। भीतर लोग न झांकही, बाहर ढूंढत जाहीं॥

48. जहां आपा तहां आपदा, जहां संशय तहां रोग।

कह कबीर वह क्यों दिखे, चारों बाधक रोग॥

49. झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मौज।

जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद॥

50. तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय।

सहज में सब ही पाइये, जो मन जोगी होय॥

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Sandeep Kumar Verma
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Written by Sandeep Kumar Verma

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