Nirnay एक निर्णय हमको जिज्ञासु से मुमुक्षु बना देता है। | Philosia: The Art of seeing all
निर्णय एक लेना है, मार्ग दो हैं — ध्यान या पारमिताएँ
ओशो अपने शिष्यों के साथ ध्यान-शिविर, आनंद-शिला, अंबरनाथ में रात्रि, 9 फरवरी, 1973 को मैडम ब्लावात्स्की की किताब ‘समाधि के सप्त द्वार’ पर चर्चा कर रहे हैं।
‘हे उपाध्याय, निर्णय हो चुका है, मैं ज्ञान पाने के लिए प्यासा हूं। अब आपने गुह्य मार्ग पर पड़े आवरण को हटा दिया हैऔर महायान की शिक्षा भी दे दी है। आपका सेवक आपसे मार्ग–दर्शन के लिए तत्पर है।’
खोजी, अभीप्सु अपने गुरु से कह रहा है: ‘हे उपाध्याय, निर्णय हो चुका है।’… मैंने निर्णय कर लिया कि मैं तैयार हूं, अबजहां आप मुझे ले चलें।
यह निर्णय जिज्ञासु को साधक बना देता है। इतना ही फर्क है जिज्ञासु और साधक में। लेकिन यह फर्क बड़ा है, यह फ़र्क़ इतना बड़ा है जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि जिज्ञासु पूछता रहता है, पूछता रहता है, प्रश्न करता रहता है, औरकहीं नहीं पहुंचता। उसकी तलाश उत्तर की तलाश है, समाधान की नहीं।
वह पूछता है एक प्रश्न, ताकि उत्तर मिल जाए। एक प्रश्न का उत्तर मिल जाता है, तो उत्तर से दस नये प्रश्न खड़े हो जातेहैं। वह दस के उत्तर खोजने निकल जाता है। कभी हो सकता है दस के उत्तर भी मिल जाएं, तो दस हजार प्रश्न उन उत्तरोंसे खड़े हो जाएंगे। क्योंकि पूछने वाला प्रश्नों के उत्तर से मिटता नहीं; पूछने वाला तो भीतर है, जिससे प्रश्न पैदा होते हैं।हम प्रश्न को मिटा लेते हैं; पूछने वाला तो भीतर खड़ा है।
जैसे कोई वृक्ष की एक शाखा को काट दे, तो दस नई शाखाएं पैदा हो जाएं, क्योंकि शाखाओं को जिस जड़ से रस मिलरहा है, वह पीछे जमीन में दबी है। जिज्ञासु पत्तियों को तोड़ता रहता है, शाखाओं को काटता रहता है; प्रश्न तोड़ता रहताहै, उत्तर मिलते जाते हैं और नये प्रश्न निर्मित होते जाते हैं, क्योंकि प्रश्न निर्माण करने वाला भीतर है।
जिज्ञासु कभी समाधान को उपलब्ध नहीं होता। जिज्ञासुओं से दर्शन का जन्म हुआ, फिलॉसफी का। इसलिए दर्शन (philosophy) किसी निर्णय पर नहीं पहुंचता।
अगर निर्णय प्रथम ही नहीं है, तो अंतिम भी नहीं होगा; और निर्णय अगर प्रथम है, तो ही अंत में भी निर्णय हो सकेगा।
अंत में वही प्रकट होता है जो प्रथम छिपा था, मौजूद था। जो आदि में था, वही अंत में प्रकट हो सकेगा। जो बीज में है, वही वृक्ष में प्रकट होगा। बीज में ही जो नहीं, वह वृक्ष में भी प्रकट नहीं होगा।
जिज्ञासु प्रश्न पूछता है, उत्तर पा जाता है, लेकिन समाधान नहीं।
समाधान के लिए तो स्वयं को बदलना पड़ता है।
यह जिज्ञासु जब कह रहा है कि ‘हे उपाध्याय, निर्णय हो चुका है।’… तो यह कह रहा है कि अब मैं साधक बनने को तैयार हूं; अब मैं पूछना ही नहीं चाहता हूं, अब मैं उत्तर ही नहीं चाहता हूं, अब मैं बदलना चाहता हूं स्वयं को, अब मैं समाधान चाहता हूं। और समाधान तो उसे मिलता है जो समाधि को उपलब्ध होता है।
हल तो उसका होता है जो स्वयं भीतर के सारे द्वंद्व को हल कर ले। और ऐसी घड़ी ले आए अपने भीतर कि जहां कोई प्रश्न नहीं उठते। तभी असली उत्तर उपलब्ध होता है।
‘निर्णय हो चुका है, और मैं ज्ञान पाने के लिए प्यासा हूं।’
कहते तो हम भी हैं कि ज्ञान पाने की हमारी प्यास है। लेकिन अगर कोई कहे कि यह रहा सरोवर, दस कदम चल लें, तो दस कदम चलने को भी हम तैयार नहीं हैं। उससे पता चलता है कि प्यास झूठी है। क्योंकि प्यासा तो दस हजार कदम भी चलने को राजी होगा।
हम भी कहते हैं कि सत्य की हमें प्यास है, लेकिन दस कदम चलने की हमारी तैयारी न हो, तो पता चलता है कि प्यास कितनी है।
प्यास नहीं है, हम शब्द का अर्थ ही नहीं समझे। कहना चाहिए हमें भी दर्शन की, हमें भी सत्य की, धर्म की, परमात्मा की वासना है, प्यास नहीं।
वासना से मेरा मतलब है: गैर–जरूरत की चीजों की इच्छा।
मिल जाएं तो खुशी होगी, न मिलें तो हमें कोई तकलीफ नहीं है। नहीं मिले तो हमारा कोई जीवन संकट में नहीं है। मिल जाए तो हम खुश होंगे, क्योंकि हमारे अहंकार को और एक सहारा मिल जाएगा कि सत्य भी मैंने पा लिया, कि अब परमात्मा भी मेरी मुट्ठी में है, कि अब मोक्ष भी मेरी उपलब्धि बन गया। वह भी हमारी वासना है विलास की।
प्यास का अर्थ है कि जीवन दांव पर है।
गुरु ने कहा: ‘यह शुभ है श्रावक, तैयारी कर, क्योंकि तुझे अकेला ही यात्रा पर जाना होगा। गुरु केवल मार्ग–निर्देश करसकता है। मार्ग तो सबके लिए एक है, लेकिन यात्रियों के गंतव्य पर पहुंचने के साधन अलग–अलग होंगे।’
गुरु ने कहा: शुभ है तेरी निष्ठा और तेरा निर्णय। संकल्प तेरा प्रीतिकर है, स्वागत के योग्य है; लेकिन तैयारी कर, क्योंकि यह यात्रा अकेले की यात्रा है। इस पर कोई दूसरा साथ नहीं जा सकता। इस पर किसी दूसरे को साथ ले जानेका उपाय नहीं है। यह मार्ग ऐसा नहीं कि इस पर भीड़ जा सके, कि मित्र–प्रियजन, संगी–साथी जा सकें। यहां अकेलाही जाना होगा।
ध्यान मृत्यु जैसा है। मरते वक्त अकेले जाना होगा, फिर आप न कह सकेंगे कि कोई साथ चले। सब संगी-साथी जीवनके हैं, मृत्यु में कोई संगी-साथी न होगा। और ध्यान एक भांति की मृत्यु है, इसमें भी अकेले ही जाना होगा। और ऐसा भी हो सकता है कि कोई आपके साथ मरने को भी राजी हो जाए, आपके साथ ही आत्महत्या कर ले; यद्यपि यह आत्महत्या भी जीवन में ही साथ दिखाई पड़ेगी, मृत्यु में तो दोनों अलग-अलग हो जाएंगे। क्योंकि सब संगी-साथी शरीर के हैं, शरीर के छूटते ही कोई संग-साथ नहीं है।
लेकिन फिर भी यह हो सकता है कि दो व्यक्ति साथ-साथ मरने को राजी हो जाएं। दो प्रेमी साथ-साथ ही नियाग्रा मेंकूद पड़ें, यह हो सकता है। यह हुआ है। लेकिन ध्यान में तो इतना भी नहीं हो सकता कि दो व्यक्ति साथ-साथ कूदपड़ें। क्योंकि ध्यान का तो शरीर से इतना भी संबंध नहीं है। मृत्यु का तो शरीर से थोड़ा संबंध है।
ध्यान तो नितांत ही आंतरिक यात्रा है। ध्यान तो शुरू ही वहां होता है, जहां शरीर समाप्त हो रहा है। जहां शरीर कीसीमा आती है, वहीं से तो ध्यान की यात्रा शुरू होती है। वहां कोई संगी–साथी नहीं है।
ध्यान का अर्थ है: जैसे हम हैं, ठीक ऐसे ही छलांग। जैसे हम हैं, बाहर की दुनिया में बिना कोई फर्क किए–चरित्र होबुरा, शील न हो पास, सदगुण न हों, इसकी बिना चिंता किए–बाहर कुछ भी न हो। पाप भी हो, कर्मों का बोझ भी हो–जैसे हम हैं, ठीक ऐसे में से ही उस पहाड़ पर सीधी चढ़ाई का भी रास्ता है। हम सीधे भी कूद सकते हैं।
क्यों?
क्योंकि ध्यान मानता ही यह है कि जिसे हम बाहर का जगत कहते हैं, वह स्वप्न से ज्यादा नहीं है। यह ध्यान की मान्यताहै।
यह ध्यान के मार्ग का प्राथमिक सिद्धांत है कि जिसे हम बाहर का जगत कहते हैं, वह स्वप्न से ज्यादा नहीं है।
एक आदमी स्वप्न देख रहा है कि वह चोर है, पापी है, हत्यारा है, और एक आदमी स्वप्न देख रहा है कि साधु है, महात्माहै, सदगुणी है। ध्यान का मार्ग कहता है: क्या फर्क पड़ता है कि तुम क्या स्वप्न देख रहे हो, कुछ भी तुम स्वप्न देख रहेहो–चोर होने का या साधु होने का–दोनों स्वप्न हैं। और चोर होने के स्वप्न से जागने में जो करना पड़ेगा, वही साधु होने के स्वप्न से भी जागने में करना पड़ेगा।
तो तुम जाग सकते हो अभी, इसकी फिकर छोड़ो कि पहले मैं यह चोर वाला स्वप्न बदलूं और साधु वाला स्वप्न स्वीकारकरूं, और फिर जागूंगा। ध्यान का मार्ग कहता है: इस उलझन में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है कि पहले तुम साधु बनो असाधु से, पुण्यात्मा बनो पापी से। अगर स्वप्न ही हैं दोनों, तो फिर किसी भी स्वप्न से जागा जा सकता है।
और सभी स्वप्न जागने की तरफ ले जा सकते हैं। स्वप्न फिर बुरे और भले नहीं होते हैं। इसलिए ध्यानियों ने जगत को माया कहा है। इसीलिए कहा है।
ध्यानियों ने संसार को स्वप्नवत कहा है। इसीलिए कहा है कि अगर यह बात ठीक से खयाल में आ जाए कि सभी कुछ स्वप्नहै, तो फिर स्वप्न को स्वप्न में बदलने की चेष्टा व्यर्थ है। फिर तो जागने की चेष्टा ठीक है।
दो ही मार्ग हैं ध्यान का या पारमिताओं (शील) का और आप यह मत समझ लेना कि शील का मार्ग सरल होगा, कि पारमिताओं का मार्ग सरल होगा। ध्यान का मार्ग तो कठिन है। इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरा मार्ग सरल होगा। दूसरामार्ग भी कठिन है।
अगर स्वप्न से जागना कठिन है, तो एक स्वप्न को दूसरे स्वप्न में बदलना भी आसान नहीं है। सच तो यह है कि कई बारऐसा लगेगा कि स्वप्न से जागना ही सरल है, बजाय एक स्वप्न को दूसरे स्वप्न में बदलने के।
स्वप्न से आप कई बार जागे हैं, लेकिन स्वप्न को बदल सकते हैं?
कभी कोशिश की है कि आपका स्वप्न भीतर चल रहा है कि मैं एक चोर हूं और यह स्वप्न आप बदल लें और साधु होजाएं?
तो आपको पता चलेगा, यह और भी कठिन मालूम पड़ता है। इससे तो बेहतर है कि अलार्म भर कर जग जाएं। इससे तो बेहतर है कि कोई उपाय कर लें और नींद को ही तोड़ डालें, बजाय स्वप्न को बदलने के।
और जो स्वप्न को बदल सकता है, उसे जागने में क्या बाधा होगी?
क्योंकि स्वप्न को बदलने का मतलब ही यह है कि आप भीतर जागे हुए हैं और जान रहे हैं कि यह स्वप्न है, और बुरास्वप्न है, और अब मैं इसे अच्छे स्वप्न में बदल रहा हूं। तो जो इतना समर्थ है जागने में कि स्वप्न को पहचान लेता हैस्वप्न की भांति, वह जाग ही जाएगा।
वह स्वप्न को क्यों बदलेगा?
इसलिए दूसरी बात भी सरल है, ऐसा मत सोचना।
‘पारमिता के शिखर तो और भी दुर्गम पथ से प्राप्त होते हैं। तुझे सात द्वारों से होकर यात्रा करनी होगी। ये सात द्वार सातक्रूर व धूर्त शक्तियों के, सशक्त वासनाओं के दुर्ग जैसे हैं।’
अध्यात्म की अनिवार्य रूप से एक शर्त है कि वहां जो भी है, सभी कठिन है। वहां सरल कुछ भी नहीं है। और जो लोगभी कहते हैं, सरल है, वे सिर्फ आपको प्रलोभन देते हैं।
शायद आपके हित में ही देते हों। लेकिन सरल वहां कुछ भी नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अध्यात्म अपने आप में जटिल है। इसका अर्थ केवल इतना है कि आप इतने जटिल हैं और उलझे हुए हैं कि अध्यात्म की तरफ जाना आपको जटिल मालूम पड़ता है।
जो पहुंच जाते हैं उन्हें तो लगता है कि संसार बहुत जटिल था और अध्यात्म बहुत सरल है। लेकिन जो संसार में हैं, उन्हें अध्यात्म बहुत जटिल है।
इतना बड़ा उलझाव आप खड़ा करने में कुशल हैं। अपने आस-पास इतना जाल बुन लेते हैं आप–शायद दूसरे को फँसाने के लिए बुनते हैं और खुद फंस जाते हैं, वह दूसरी बात, लेकिन बड़ा जाल बुन लेते हैं। और जाल बुनने की इतनी आदत है कि अगर कभी सोचते भी हैं कि इस जाल से कैसे बचें, तो एक नया जाल बुनते हैं–वह बुनना आपकी आदतहै — तो अध्यात्म भी आपके लिए जाल बन जाता है।
लोग संसार छोड़ देते हैं और संन्यासी हो जाते हैं, और फिर संन्यास का एक जाल बुन लेते हैं। संन्यास का मतलब ही है की अब हमें इस जाल से ऊब हो गई है, अब हम जाल न बुनेंगे। ज्यादा बेहतर है कि पुराने जाल में ही खड़े रहें और नया न बुनें। बुनना बंद कर दें।
जाल नहीं रोकता आपको–बुनने की आदत। आप बुने ही चले जाते हैं अपने चारों तरफ, बहाना कोई भी हो। उस (बुनने की आदत) से कठिनाई है।(इसलिए ओशो कहते हैं कोई नया काम शुरू करना बंद कर दो)।
ओ लानू (शिष्य) तू ठीक देखता है। (पारमिताओं की यात्रा में) ये द्वार मुमुक्षु को नदी के पार दूसरे किनारे पर निर्वाण में पहुँचा देते हैं। प्रत्येक द्वार की एक स्वर्ण–कुंजी है, जो उसे खोलती है। ये कुंजियां हैं:
1. दान: उदारता व अमर प्रेम की कुंजी।
2. शील: वचन और कर्म की लयबद्धता की कुंजी, जो कारण और कार्य के नियम को संतुलित और कर्म–बंधन का अंतकरती है।
3. क्षांति: मधुर धैर्य, जिसे कुछ भी विचलित नहीं कर सकता।
4. विराग: सुख व दुख के प्रति उपेक्षा, भ्रांति पर विजय, मात्र सत्य का दर्शन।
5. वीर्य: वह अदम्य ऊर्जा जो सांसारिक असत्यों के दलदल से सत्य के शिखर की ओर संघर्ष करती है।
6. ध्यान: जिसका स्वर्ण–द्वार एक बार खुल जाने पर जो नारजोल (संत या सिद्ध) को नित्य सत्य के लोक और उसकेसतत स्मरण की ओर ले जाता है।
7. प्रज्ञा: जिसकी कुंजी मनुष्य को दिव्य बना देती है, और बोधिसत्व भी। बोधिसत्वता ध्यान की पुत्री है।
उन द्वारों की ऐसी ही स्वर्ण–कुंजियां हैं।
इस बात का निर्णय ही कि मैं तत्पर हूं उस नदी में प्रवेश के लिए, जो सागर की ओर ले जाएगी; छोड़ता हूं अपने को, बहने का संकल्प करता हूं, समर्पित होता हूं–यह निर्णय ही व्यक्ति को स्रोतापन्न बना देता है।
और इस निर्णय के साथ ही व्यक्ति में परिवर्तन शुरू हो जाते हैं।
निर्णय के बाद नहीं, इस निर्णय के साथ ही।
ऐसा नहीं है कि निर्णय किया और फिर परिवर्तन होंगे। यह निर्णय ही परिवर्तनकारी हो जाता है। इस निर्णय के साथ ही आप वही आदमी नहीं हैं, जिसने निर्णय किया था; आप दूसरे आदमी हैं, जो निर्णय से गुजर चुका है।
यह निर्णय आपके भीतर, उस दृष्टि की पहली झलक ले आता है, जिसके बिना मार्ग पर जाने का कोई उपाय नहीं है।
हम जीते हैं अनिर्णय में। हमारा मन सदा होता है डांवाडोल। यह भी करना चाहते हैं, वह भी करना चाहते हैं, विपरीत कोभी साथ ही करना चाहते हैं। और हम न मालूम कितने खंडों में बंटे होते हैं। इन खंडों के बीच कोई तारतम्य भी नहीं होता।
निर्णय के साथ ही आपके खंड इकट्ठे हो जाते हैं। निर्णय का एक सूत्र आपको जोड़ देता है। आप टुकड़ों में बंटे हुए एकभीड़ न होकर व्यक्ति बन जाते हैं। अगर आपने कभी कोई छोटा-मोटा निर्णय भी किया है, तो उस निर्णय के साथ हीभीतर जो एकाग्रता फलित होती है, उस निर्णय के साथ भीतर जो एक हलकापन और ताजगी आ जाती है, उसका भी अनुभव किया होगा।
साधारण निर्णय में भी धुआं छंट जाता है, बादल हट जाते हैं, सूर्य का प्रकाश हो जाता है। निर्णय के साथ ही धुंध केबाहर हो जाते हैं।
लेकिन बड़े निर्णय तो बड़े क्रांतिकारी हैं। उनके बाद आप वही आदमी नहीं रहते हैं, और फिर दुबारा लौटना असंभव हो जाता है। ऐसा ही निर्णय है साधक बनने का निर्णय। इस निर्णय के साथ ही व्यक्ति की भीतर की आंख पहली दफाखुलती है, पलक पहली दफा उठता है।
तो यह पलक उठ गया है, और यह आंख खुली, और गुरु ने शिष्य को कहा है:
‘वह देख, ईश्वरीय प्रज्ञा के मुमुक्षु, तू अपनी आंखों के सामने क्या देख रहा है?’
इस निर्णय के साथ ही भीतर जो एकाग्रता फलित हो रही है, उस एकाग्रता में तुझे क्या दिखाई पड़ रहा है?
यह आपके बाहर दिखाई पड़ने वाली दो आंखों की बात नहीं है। यह तो निर्णय के साथ भीतर जो तीसरी आंख खुलती है, उसकी बात है।
देख, तेरी आंखों के सामने क्या घट रहा है?
और जो दिखाई पड़ा है साधक को, वह मनुष्य के मन की बड़ी गहनतम खोज है। और जब आप भी अपने भीतर प्रवेशकरेंगे, तो जिससे आपकी पहली मुलाकात होगी, वह आपकी आत्मा नहीं है। जिससे आपकी पहली मुलाकात होगी, वह आपकी छाया है, आपकी आत्मा नहीं।
और अब तक हम छाया को ही आत्मा मान कर जीए हैं। इसलिए स्वाभाविक है कि उससे ही हमारा पहले मिलना हो।यह हमारे भीतर जो एक छाया है–जिसको पीछे मनोविज्ञान ने, विशेषकर गुस्ताव जुंग ने बड़ा मूल्य दिया और कहा कि हर आदमी की एक शैडो है।
वह छाया, जो आपको दिखाई पड़ती है सूरज की धूप में, वह नहीं है। जो आपने अपनी ही भूल और अपने अज्ञान सेअपने भीतर निर्मित कर ली–आपकी अस्मिता, आपका अहंकार–वह भी आपका पीछा कर रही है। सूरज की धूप भीजब नहीं होती, तब भी वह छाया आपका पीछा करती है। और उस छाया में ही आप जीते हैं। और उस छाया को ही मानलेते हैं कि यह मैं हूं। और उस छाया के आस-पास ही एक संसार निर्मित करते हैं।
तो जैसे ही निर्णय की आंख खुलती है, पहली मुलाकात उसी छाया, उसी मनस–काया से होती है।
— ओशो, समाधि के सप्त द्वार, चैप्टर #1 स्रोतापन्न बन & #2 प्रथम दर्शन Ke Sapt Dwar by Osho
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। (instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध्यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै (ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो से यह इंस्टाग्राम पर ओशो का ऑडियो लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें। ) और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at https://philosia.in on November 14, 2024.