Osho said that we are product of three desires, two of parents that we can see and third was our desires that were left incomplete in last birth. So actually the soul with desires has to search for best suited womb where one get conductive atmosphere to fulfil its desires.
So stopping people to write about sex or lust is against our basic nature due to which we all are born. Nature has given it to everyone! Had it be harmful, then God has not given it to any living being like trees, animals even virus.
We want to embark upon spiritual journey but keep ourselves bounded to our religious teachings/conditioning that sex or lust is bad. पुण्य और पाप, दोनों ही बंधन हैं। पाप होगा लोहे की जंजीर, पुण्य होगा सोने की जंजीर – हीरे-जवाहरातों से जड़ी। पर क्या फर्क पड़ता है? पापी भी बंधा है, पुण्यात्मा भी बंधा है। पापी दुख पा रहा है, पुण्यात्मा सुख पा रहा है; लेकिन दोनों को अभी उसकी खबर नहीं मिली जो दोनों के पार है। दोनों द्वैत में जी रहे हैं। भीतर जिसने स्वयं को जाना; जिसने साहब को जाना; जिसने अपने सलोने रूप को पहचाना; जिसने अपने निराकार-निर्गुण को देखा (का दर्शक बना); जिसने अपनी अद्वैत प्रतिष्ठा पाई – उसके लिए न तो कोई पुण्य है, न तो कोई पाप। वह द्वंद्व के बाहर हो गया – वह निर्द्वंद्व है। वह द्वैत के पार उठ गया – वह अद्वैत है। और यह साहब बहुत दूर नहीं है। पास भी कहना उचित नहीं है। साहब तुम्हारे भीतर है। भीतर कहना भी उचित नहीं है। साहब तुम्हीं हो। ‘ऐसन साहब कबीर।’My post on word press blog for my views on spirituality, as per my own experiences till date in this journey. . – – – – – – – ऐसन साहब कबीर, सलोना आप है। .नहीं जोग नहिं जाप, पुन्न नहिं पाप है।। ………….. – – – तुम्हारे लिए न तो जोग की जरूरत है, न जाप की जरूरत है; और न कहीं पुण्य की कोई जरूरत है, न पाप की कोई जरूरत है। जिसने तुम्हें बनाया, वह पुण्य और पाप के बाहर है; तुम भी बाहर हो। और जिसने तुम्हें बनाया, तुम जिसकी कृति हो, उसके हस्ताक्षर तुम पर हैं – तुम कैसे पापी हो सकते हो? तुम कैसे बुरे हो सकते हो? कहावत है: फल से वृक्ष जाना जाता है। तो तुमसे परमात्मा जाना जाएगा, क्योंकि तुम उसके श्रेष्ठतम फल हो इस पृथ्वी पर। इस सृष्टि में मनुष्य उसका श्रेष्ठतम फल है। बाइबिल में कहा है कि परमात्मा ने अपनी ही शक्ल में आदमी को बनाया; बनाया है, लेकिन तुम्हें अपनी शक्ल का पता ही नहीं। पापी और पुण्यात्मा में बहुत फर्क नहीं है। इतना ही फर्क है, जैसे एक आदमी पैर पर खड़ा है और एक आदमी सिर पर खड़ा है। तुम अगर शीर्षासन कर लो तो कुछ फर्क हो जाएगा? – तुम ही रहोगे – सिर के बल खड़े रहोगे। अभी पैर के बल खड़े थे। क्या फर्क होगा तुममें? – तुम उलटे हो जाओगे। पुण्यात्मा सीधा खड़ा है; पापी सिर के बल खड़ा है – वह शीर्षासन कर रहा है। और शीर्षासन करने में कष्ट मिलता है, तो पा रहा है। पुण्यात्मा कुछ विशेष नहीं कर रहा है। और पापी कुछ पाप का फल आगे पाएगा, ऐसा नहीं है; पाप करने में ही पा रहा है। सिर के बल खड़े होओगे, कष्ट मिलेगा। और पुण्यात्मा पैर के बल खड़ा है, इसलिए सुख पा रहा है। इसमें कोई भविष्य में कोई सुख मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा – ऐसा कोई सवाल नहीं है। तुम अगर ठीक-ठीक चलते हो रास्ते पर, तो सकुशल घर आ जाते हो, बस। अगर तुम उलटे-सीधे चलते हो, शराब पीकर चलते हो – गिर पड़ते हो, पैर में चोट लग जाती है, फ्रैक्चर हो जाता है। कोई जमीन तुम्हारे पैर में फ्रैक्चर नहीं करना चाहती थी; तुम्हीं उलटे-सीधे चले। पापी उलटा-सीधा चल रहा है, थोड़ा डांवाडोल चल रहा है; पुण्यात्मा थोड़ा सम्हल कर चल रहा है। लेकिन कबीर कहते हैं कि जो अपने भीतर चला गया, वह तो स्वयं परमात्मा हो गया – वहां न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। उसकी चाल… उसकी चाल का क्या कहना! ध्यान रखो, पाप से दुख मिलता है, पुण्य से सुख मिलता है। पाप रोग की तरह है, पुण्य स्वस्थ होने की तरह है। लेकिन भीतर जो चला गया, वह न तो दुख में होता है, न सुख में; वह आनंद में जीता है। आनंद बड़ी और बात है। आनंद का मतलब है: सुख भी गए, दुख भी गए। क्योंकि जब तक दुख रहते हैं, तभी तक सुख रहते हैं। और जब तक सुख रहते हैं, तब तक दुख भी छिपे रहते हैं; वे जाते नहीं। पापी के लिए नरक, पुण्यात्मा के लिए स्वर्ग; और जो भीतर पहुंच गया, उसके लिए मोक्ष। वह स्वर्ग और नरक दोनों के पार है। (from Osho on Kabir’s songs: कस्तूरी कुंडल बसे location 3626 on kindle eBook)