Vishay विषयों में रस बंध है। इतना ही विज्ञान है। | Philosia: The Art of seeing all
रस और विरसता पर ओशो
19 नवम्बर 1967, सुबह, चुआंग त्जु ऑडिटोरियम, पुणे में ओशो अपने सन्यासियों के साथ भारतीय मनीषा के माउंट एवरेस्ट अष्टावक्र महागीता, भाग 4, चैप्टर #39 “विषयों में विरसता मोक्ष है” पर चर्चा कर रहे हैं।
मुसलमान अपनी कुरान को पकड़ कर बैठा है, हिंदू अपनी गीता को पकड़ कर बैठा है। गीता, जिससे मुक्ति हो सकती थी, तुमने उसका भी करागृह बना लिया। तुमने शास्त्रों का ईंटों की तरह उपयोग किया है।
‘असतबुद्धि वाला पुरुष जीवन भर जिज्ञासा करके भी उसमें मोह को ही प्राप्त होता है।’
इसलिए धार्मिक मैं उसी को कहता हूं जो संप्रदाय में नहीं है; जो सारे संप्रदायों से मुक्त है और सारे सिद्धांतों से भी; जोस्वच्छंद है; जिसने स्वयं के छंद को पकड़ लिया; अब जो जीता है अपने भीतर के गीत से; जो जीता है अब परमात्मा कीभीतर गूंजती आवाज से; बाहर जिसका अब कोई सहारा नहीं।
जो बाहर से बेसहारा है उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है।
लेकिन स्वाभाविक है, असत से भरा व्यक्ति मोह में पड़ जाता है। क्योंकि असत से भरा व्यक्ति अभी वस्तुतः ज्ञान के योग्य ही न था।
एक आदमी धन के पीछे दौड़ रहा था, उसकी इच्छा थी संग्रह कर लेने की। संग्रह में एक तरह की सुरक्षा है। बीच में ही, कच्चा ही लौट आया धन की दौड़ से। यह आदमी अब ज्ञान को संग्रह करने लगेगा, संग्रह की दौड़ नहीं मिटेगी। धन से लौट आया। बीच से लौट आया। संग्रह का भाव अधूरा रह गया। उसको कहीं पूरा करेगा। अब यह ज्ञान-संग्रह करने लगेगा।
यह आदमी राजनीति में था और कहता था कि मेरी पार्टी ही एकमात्र पार्टी है जो देश को सुख-शांति दे सकती है। यह उसमें पूरा नहीं गया। पूरा जाता तो असार दिखाई पड़ जाता। बीच में ही लौट आया, अधकच्चा लौट आया। यह किसी धर्म में सम्मिलित हो गया है, हिंदू हो गया है, तो अब यह कहता है कि हिंदू धर्म ही एकमात्र धर्म है जो दुनिया की मुक्ति ला सकता है। यह राजनीति है, यह धर्म नहीं है। यह आदमी अधूरा लौट आया।
तुम जहां से अधूरे लौट आओगे उसकी छाया तुम पर पड़ती रहेगी और वह छाया तुम्हारे जीवन को विकृत करती रहेगी।इसलिए एक बात को खूब खयाल से समझ लेना: कहीं से कच्चे मत लौटना।
पाप का भी अनुभव आवश्यक है, अन्यथा पुण्य पैदा नहीं होगा।
और संसार का अनुभव जरूरी है, अर्थात संसार की पीड़ा और आग से गुजरना ही पड़ता है। उसी से निखरता है कुंदन।उसी से तुम्हारा स्वर्ण साफ-सुथरा होता है। इसलिए जल्दी मत करना। और जो भी जल्दी में है, वह मुश्किल में पड़ेगा। वह न घर का रहेगा और न घाट का रहेगा; धोबी का गधा हो जाएगा–न संसार का, न परमात्मा का।
अधिक लोगों को मैं ऐसी हालत में देखता हूं — दो नावों पर सवार हैं। सोचते हैं, संसार भी थोड़ा सम्हाल लें, क्योंकि अभीसंसार से मन तो छूटा नहीं; और सोचते हैं, परमात्मा को भी थोड़ा सम्हाल लें।
भय भी पकड़ा हुआ है। बचपन से डरवाए गए हैं। लोभ दिया गया है। स्वर्ग का लोभ है, नर्क का भय है, वह भी पकड़े है, ऐसे डांवांडोल हैं। यह डांवांडोलपन छोड़ो।
अगर संसार से मुक्त होना है तो संसार के अंधकार में उतर जाओ पूरे। होशपूर्वक संसार का ठीक से अनुभव कर लो।वही होश तुम्हें बता जाएगा, आत्यंतिक रूप से बता जाएगा कि संसार सपना है। उसके बाद तुममें सत्वबुद्धि पैदा होतीहै।
संसार सपना है, ऐसी प्रतीति ही सत्वबुद्धि की प्रतीति है।
फिर तुम सत्य को जानने को तैयार हुए।
जब संसार सपना सिद्ध हो गया अपने अनुभव से, तो फिर किसी सदगुरु का छोटा–सा वचन भी तुम्हें चौंका जाएगा, कृतार्थ कर जाएगा।
अगर मन अधूरा है, अभी भरा नहीं, अगर कहीं कोई फांस अटकी रह गई है, सपने में अभी भी थोड़ा रस है, लगता हैशायद कहीं सच ही हो, असार अभी पूरा का पूरा प्रगट नहीं हुआ। लगता है कहीं कोई सार शायद छिपा ही हो! इतनेलोग दौड़े जा रहे हैं–धन के, पद के पीछे! हम लौटने लगे! शक होता है। इतने लोग दौड़ते हैं, कहीं ठीक ही हों!
ज्ञानियों ने कहा है: जब तुम्हारी चेतना में पीड़ा होती है तो तुम्हें पता चलता है कि मैं हूं। और जब सब संताप मिट जाता है, कोई पीड़ा नहीं रह जाती, तो पता ही नहीं चलता कि मैं हूं। वह जो न पता चलना है, वह घबराता है–‘मैं नहीं हूं! तो इससे तो दुख को ही पकड़े रहो; दुख के किनारे को ही पकड़े रहो। यह ‘मैं नहीं हूं’ की तरह जीवन तो मझधार में डूबना हो जाएगा!’
तो जब तक कोई व्यक्ति दुख के अनुभव को इतनी गहराई से न देख ले कि उसे पता चल जाए कि दुख मैं हूं और मेरे होने में दुख नियोजित है, दुख के बिना मैं हो नहीं सकता–ऐसी गहन प्रतीति के बाद जब कोई सदगुरु के पास आता है तो बस ‘यथातथोपदेशेन’, जैसे-तैसे थोड़े-से उपदेश में क्रांति घट जाती है।
एक वक्त ऐसा आता है जब सब कुछ झूठ होता जाता है सब असत्य सब पुलपुला, सब कुछ सुनसान मानो जो कुछदेखा था, इंद्रजाल था मानो जो कुछ सुना था, सपने की कहानी थी। जब ऐसी प्रतीति आ जाए, तब तुम तैयार हुए सदगुरु के पास आने को।
उसके पहले तुम आ जाओगे, सुन लोगे, समझ भी लोगे बुद्धि से; लेकिन जीवन में कृतार्थता न होगी।
सदगुरु के पास आने का तो एक ही अर्थ है कि तुम अनंत की यात्रा पर जाने को तत्पर हुए। सीमित से ऊब गये, सीमा को देख लिया। बाहर से थक गये; देख लिया, बाहर कुछ भी नहीं है, हाथ खाली के खाली रहे।
सिकंदर बन कर देख लिया, हाथ खाली के खाली रहे। तब अंतर की यात्रा शुरू होगी। देख लिया जो दिखाई पड़ता था; अब उसको देखने की आकांक्षा होती है जो दिखाई नहीं पड़ता और भीतर छिपा है: ‘शायद जीवन का रस और रहस्य वहां हो!’
लेकिन जिसकी आंख में अभी बाहर का थोड़ा-सा भी सपना छाया डाल रहा है, वह लौट-लौट आयेगा।
यही तो होता है। तुम ध्यान करने बैठते हो, आंख बंद करते हो; आंख तो बंद कर लेते हो, लेकिन मन तो बाहर भागता रहता है–किसी का भोजन में, किसी का स्त्री में, किसी का धन में, किसी का कहीं, किसी का कहीं। तुमने खयाल किया, ऐसे चाहे खुली आंख तुम्हारा मन इतना न भागता हो, हजार कामों में उलझे रहते हो, मन इतना नहीं भागता; ध्यान करने बैठे कि मन भागा। ध्यान करते ही मन एकदम भागता है, सब दिशाओं में भागता है। न मालूम कहां-कहां के ख्याल पकड़ लेता है! न मालूम किन-किन पुराने संचित संस्कारों को फिर से जगा लेता है! जिन बातों से तुम सोचते थे कि तुम छूट गये, वे फिर पुनरुज्जीवित हो जाती हैं। आंख बंद करते ही! साफ पता चल जाता है कि तुम्हारा राग अभी बाहर से बंधा हुआ है।
अंतर की यात्रा बड़ी से बड़ी यात्रा है। चांद-तारों पर पहुंच जाना इतना कठिन नहीं, इसलिए तो आदमी पहुंच गया।भीतर पहुंचना ज्यादा कठिन है। गौरीशंकर पर चढ़ जाना इतना कठिन नहीं, इसलिए तो आदमी चढ़ गया!
भीतर के शिखर पर पहुंच जाना अति कठिन है।
कठिनाई क्या है?
कठिनाई यह है कि बाहर अभी हजार काम अधूरे पड़े हैं। जगह–जगह मन अभी बाहर उलझा है। रस अभी कायम है।
धार भीतर बहे तो बहे कैसे?
धार भीतर एक ही स्थिति में बहती है जब बाहर से सब संबंध अनुभव के द्वारा व्यर्थ हो गये। तुम भोग लो, भोगी अगर ठीक-ठीक भोग में उतर जाए तो योगी बने बिना रह नहीं सकता। भोग का आखिरी कदम योग है।
इसलिए मैं भोग और योग को विपरीत नहीं कहता। भोग तैयारी है योग की, विपरीत नहीं; मैं नास्तिकता को आस्तिकता के भी विपरीत नहीं कहता। नास्तिकता सीढ़ी है आस्तिकता की। नहीं कह कर ठीक से देख लो। नहीं कहने का दुखठीक से भोग लो। नहीं कहने के कांटे को चुभ जाने दो प्राणों में। रोओ, तड़प लो! तभी तुम्हारे भीतर से ‘हां’ उठेगी, आस्तिकता उठेगी। और जल्दी कुछ भी नहीं है, और ये काम जल्दी में होने वाले भी नहीं हैं। जहां तुम्हारा मन रस लेता होवहां तुम चले ही जाओ।
जब तक तुम्हें वहां वमन न होने लगे तब तक हटना ही मत। इतनी हिम्मत न हो तो सत्वबुद्धि पैदा नहीं होगी।
गुरजिएफ जब छोटा बच्चा था, उसको एक फल में रस था। और फल रसीला था। लेकिन पेट के लिए दुखदायी है।
उसके बाप ने क्या किया?
उसने कई बार उसे मना किया। वह सुनने को राजी न था। वह चोरी से खाने लगा।
तो बाप एक दिन एक टोकरी भर करफल ले आया और उसने इसे बिठा लिया अपने पास और रख लिया हाथ में डंडा और कहा: ‘तू खा!’
गुरजिएफ तो समझा नहीं कि मामला क्या है। पहले तो बड़ा प्रसन्न हुआ कि बाप को हुआ क्या, दिमाग फिर गया है! क्योंकि हमेशा मना करते हैं, घर में फल आने नहीं देते हैं। मगर बाप डंडा ले कर बैठा था तो उसे खाना पड़ा।
पहले तो रस लिया–दो-चार आठ-दस फल–इसके बाद तकलीफ होनी शुरू हुई। मगर बाप है कि डंडा लिये बैठा है, वह कहता है कि यह टोकरी पूरी खाली करनी पड़ेगी। उसकी आंख से आंसू बहने लगे, और खाया नहीं जाता।
अब वमन की हालत आने लगी और बाप डंडा लिये बैठा है और वह कहता है कि फोड़ दूंगा, हाथ-पैर तोड़ दूंगा, यह टोकरी खाली करनी है!
उसने टोकरी खाली करवा कर छोड़ी।
पंद्रह दिन गुरजिएफ बीमार रहा, उल्टी हुई, दस्त लगे; लेकिन उसने बाद में लिखा है कि उस फल से मेरा छुटकारा होगया।
फिर तो उस फल को मैं वृक्ष में भी देखता तो मेरे पेट में दर्द होने लगता।
बाजार में बिकता होता तो मैं आंख बचाकर निकल जाता।
रस की तो बात दूर, विरस पैदा हुआ। विरस यानी वैराग्य।
राग के दुख की ठीक प्रतीति से ही वैराग्य का जन्म होता है।
अधूरा रागी कभी योगी नहीं बन पाता, विरागी नहीं बन पाता। इसलिए मेरे शिक्षण में, तुम्हें कहीं से भी जल्दबाजी में हटा लेने की कोई आकांक्षा नहीं है। तुम घर में हो, घर में रहो। तुम भोग में हो, भोग में रहो। एक ही बात खयाल रखो: तुम जहां हो, उस अनुभव को जितनी प्रगाढ़ता से ले सको, उतना शुभ है। एक दिन भोग ही तुम्हें उस जगह ले आयेगा जहाँ प्राणपण से पुकार उठेगी।
तब उस घड़ी में संन्यास फलित होता है।
संन्यास सदबुद्धि की घोषणा है।
‘विषयों में विरसता मोक्ष है, विषयों में रस बंध है। इतना ही विज्ञान है। तू जैसा चाहे वैसा कर।’
देखते हो यह अपूर्व सूत्र!
मोक्षो विषयवैरस्यं बंधो वैषयिको रसः। एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु।।
‘विषयों में विरसता मोक्ष है।’
मोक्ष तुम्हारे चैतन्य की ऐसी दशा है जब विषयों में रस न रहा, जबर्दस्ती थोप-थोप कर तुम विरस पैदा न कर सकोगे।जितना तुम थोपोगे उतना ही रस गहरा होगा। इसलिए मैं देखता हूं: गृहस्थ के मन में स्त्री का उतना आकर्षण नहीं होताजितना तुम्हारे तथाकथित संन्यासी के मन में होता है।
जिस दिन तुम भोजन ठीक से करते हो, उस दिन भोजन की याद नहीं आती; उपवास करते हो, उस दिन बहुत आती है।दबाओ कि रस बढ़ता है, घटता नहीं। निषेध से निमंत्रण बढ़ता है, मिटता नहीं। और यही प्रक्रिया चलती रही…।
तुम जिन्हें साधारणतः साधु-महात्मा कहते हो, उन्होंने तुम्हें निषेध सिखाया है। उन्होंने कहा कि दबा लो जबर्दस्ती।लेकिन दबाने से कहीं कुछ मिटा है!
‘विषयों में विरसता मोक्ष है और विषयों में रस बंध है।’
संसार बाहर नहीं है–तुम्हारे रस में है। और मोक्ष कहीं आकाश में नहीं है — तुम्हारे विरस हो जाने में है।
श्रुतियों का प्रसिद्ध वचन है:
मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः।
बंधाय विषयासक्तं मुक्तयैर्निर्विषये स्मृनम्।।
मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः!
मन ही कारण है बंधन और मोक्ष का। और मन का अर्थ होता है: जहां तुम्हारा मन। अगर तुम्हारा मन कहीं है तो रस। रस है तो बंधन है।
अगर तुम्हारा मन कहीं न रहा, सब चीजें विरस हो गईं, मन का पक्षी कहीं नहीं बैठता, अपने में ही लौट आता है–वहीं मोक्ष।
‘बंधाय विषयासक्तं मुक्तयैर्निर्विषये स्मृनम्।।’
बंधन का कारण है मन, और मुक्ति का भी। पक्षी जब तक उड़ता रहता है और बैठता रहता है अलग–अलग स्थानों पर — और हम बदलते रहते हैं, और हम किसी चीज में पूरे नहीं जाते — तो रस नया बना रहता है।
मैंने यह अनुभव किया कि तथाकथित संन्यासियों में अधिक मूढ़ बुद्धि के लोग हैं–जो कहीं जाते तो सफल हो भी नहीं सकते थे। तो वे कह रहे हैं, अंगूर खट्टे हैं। पहुंच सकते नहीं थे। तुमने कभी अपने संन्यासियों पर गौर किया? जरा संन्यासियों की तुम कतार लगा कर…कुंभ का मेला आता है, जरा जा कर देखना! जरा गौर से खड़े हो कर देखना अपने संन्यासियों को। तुम पाओगे जैसे सारे जड़बुद्धि यहां इकट्ठे हो गए हैं। जड़बुद्धि न हों तो जो कर रहे हैं, इस तरह के कृत्य न करें। अब कोई बैठा है आग के पास, राख लपेटे, इसके लिए कोई बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है; कि कोई खड़ा है सिर के बल; कि कोई लेटा है कांटों पर। और यही इनका बल है। बुद्धि का जरा भी लक्षण मालूम नहीं होता; बुद्धिहीनता मालूम होती है।
लेकिन जीवन में ये कहीं सफल नहीं हो सकते थे। दूकान चलाते, दिवाला निकलता। कोई आसान मामला नहीं दूकान चलाना! नौकरी करते तो कहीं चपरासी से ज्यादा ऊपर नहीं जा सकते थे। इन्होंने बड़ी सस्ती तरकीब पा ली–ये धूनी रमा कर बैठ गये। अब इसके लिये न कोई बुद्धि की जरूरत है, न किसी विश्वविद्यालय के प्रमाण-पत्र की जरूरत है। कुछ भी जरूरत नहीं।
यह तो जड़बुद्धि से जड़बुद्धि आदमी भी कर ले सकता है, इसमें क्या मामला है?
गधे भी जमीन पर लोट कर धूल चढ़ा लेते हैं, इसमें कोई बात है! कहीं भी रेत में लेट गये तो धूल चढ़ जाती है। मगर मजा यह है कि यह जड़बुद्धि आदमी धूनी रमा कर बैठ गया, तो जो इसको अपने घर बर्तन मांजने पर नहीं रख सकते थे वे इसके पैर छू रहे हैं। चमत्कार है! यह कारपोरेशन का मेंबर नहीं हो सकता था, मिनिस्टर इसके पैर छू रहे हैं; क्योंकि मिनिस्टर सोचते हैं कि गुरु महाराज की कृपा हो जाए तो इलेक्शन जीत जाएं!
मैंने बहुत संन्यासियों को देखा घूम कर सारे देश में, निन्यानबे प्रतिशत बुद्धिहीन हैं, जड़बुद्धि हैं। वे जीवन में कहीं सफल न हो सकते थे। अंगूरों तक पहुंच न सके, चिल्लाने लगे कि खट्टे हैं।
उनकी सुन कर तुम लौट मत पड़ना; अन्यथा कभी विरसता पैदा न होगी, रस बना रहेगा।
‘विषयों में विरसता मोक्ष है, विषयों में रस बंध है।’
और अष्टावक्र कहते हैं: ‘इतना ही जनक, विज्ञान है, इतना ही विज्ञान है।’
‘विज्ञान’ शब्द बड़ा अदभुत है। विज्ञान का अर्थ होता है: विशेष ज्ञान। ज्ञान तो ऐसा है जो दूसरे से मिल जाए। विज्ञान ऐसा है जो केवल अपने अनुभव से मिलता है; इसीलिए विशेष ज्ञान।
किसी ने कहा तो ज्ञान; खुद हुआ तो विज्ञान।
साइंस को हम विज्ञान कहते हैं, क्योंकि साइंस प्रयोगात्मक है, अनुभवसिद्ध है, बकवास बातचीत नहीं है; प्रयोगशाला से सिद्ध है।
इसी तरह हम अध्यात्म को भी विज्ञान कहते हैं। वह भी अंतर की प्रयोगशाला से सिद्ध होता है। सुना हुआ–ज्ञान; जाना हुआ–विज्ञान।
यह वचन खयाल रखना: एतावदेव विज्ञानम्।
अष्टावक्र कहते हैं: और कुछ जानने की जरूरत नहीं, बस इतना विज्ञान है। विरस हो जाए तो मोक्ष, रस बना रहे तो बंधन। ऐसा जान कर फिर तू जैसा चाहे वैसा कर। फिर कोई बंधन नहीं, फिर तू स्वच्छंद है। फिर तू अपने छंद से जी–अपने स्वभाव के अनुकूल; फिर तुझे कोई रोकने वाला नहीं।
न कोई बाहर का तंत्र रोकता है, न कोई भीतर का तंत्र रोकता है। फिर तू स्वतंत्र है। तू तंत्र मात्र से बाहर है, स्वच्छंद है।
यथेच्छसि तथा कुरु!
फिर कर जैसा तुझे करना है। फिर जैसा होता है होने दे। इतना ही जान ले कि रस न हो। फिर तू महल में रह तो महल में रह–रस न हो। और रस हो और अगर तू जंगल में बैठ जाए तो भी कुछ सार नहीं।
(from “अष्टावक्र महागीता, भाग चार — Ashtavakra Mahageeta, Vol. 4: युग बीते पर सत्य न बीता, सब हारापर सत्य न हारा (Hindi Edition)” by “Osho .”). Start reading it for free: https://a.co/1hDnQQj.
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै (ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो से यह इंस्टाग्राम पर ओशो का ऑडियो लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें। ) और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at https://philosia.in on November 13, 2024.