जैन धर्म की साधना — ओशो की नज़र से | Philosia: The Art of seeing

Sandeep Kumar Verma
16 min readMay 21, 2024

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ओशो धर्म की साधना के बारे में जो कहते हैं मैंने ठीक वैसे ही अपने जीवन में प्रयोग किया और आत्मज्ञान यानी सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान भी पाया इसलिए मुझे लगता है कि उनके जैन धर्म में बदलाव के सुझाव अमल में लाने योग्य हैं।

ओशो ‘पथ साधना’ किताब के पाँचवें अध्याय में जैन धर्म में भीतर ही भीतर आमूलचूल परिवर्तन लाकर सभी को इन्हें अपने जीवन में अपनाने के लिए सुझाव देते हुए कहते हैं :-

मैं उस धर्म के संबंध में ही कहना चाहता हूं जो संप्रदायों के ऊपर है, और पीछे है, और उनका प्राण हैं। और जब वह अनुपस्थित हो जाता है, तो संप्रदाय केवल मुर्दा लाशें रह जाते हैं।

आज जमीन पर ऐसा हुआ है। संप्रदाय बहुत हैं, पूजागृह बहुत हैं, शास्त्र बहुत हैं, धर्म का उपदेश बहुत है, लेकिन धर्म अनुपस्थित हो गया है।

यह मैं इसलिए कहता हूं कि धर्म अनुपस्थित हो गया है, क्योंकि आपके जीवन में कोई आनंद की किरण, कोई आलोक दिखाई नहीं पड़ता।

अगर कोई कहे कि सुबह हो गई और घना अंधेरा हो, अगर कोई कहे कि सुबह का सूरज निकल आया और अंधेरी रात हो, तो हम कहेंगे, सूरज नहीं निकला होगा, अंधेरा काफी प्रमाण है। मनुष्य के जीवन से धर्म विलीन हो गया है, इसका काफी प्रमाण है कि मनुष्य बहुत गहरे दुख में है, बहुत गहरी पीड़ा में है।

मैं आपकी आंखों में देखता हूं, वहां कोई आनंद, वहां कोई शांति, वहां कोई उत्फुल्लता, वहां कोई कृतार्थता और सार्थकता दिखाई नहीं पड़ती है। वहां एक रिक्तता है, एक अंधेरा है, एक खालीपन है, एक उदासी है-एक मरणांतक उदासी, जैसे मरने के करीब, आसन्न मृत्यु के करीब व्यक्ति में होती है, वैसी हम सबमें व्याप्त हो गई है।

यह इस बात की सूचना है कि हम जीवन के स्रोत से विच्छिन्न हो गए हैं। मैं उसी श्रोत के संबंध में थोड़ी सी बात करना चाहता हूं। और उस साधना के संबंध में, जिसके माध्यम से हम उस स्रोत से संयुक्त हो सकते हैं।

यह दुख जो हमारे जीवन में व्याप्त है, हमारे किसी उपाय से दूर नहीं हो सकता। और यह अंधेरा जो हमें घेरे हुए है, हमारे किसी प्रश्न से जो हम बाहर के जगत में करेंगे, समाप्त नहीं हो सकता।

यह हो सकता है, एक मनुष्य सारी जमीन को जीत ले और अगर अपने को अनजीता छोड़ दे, तो वह मनुष्य आनंद को और शांति को उपलब्ध नहीं होगा। यह हो सकता है, एक मनुष्य सब-कुछ पा ले और अपने को पाने से वंचित रह जाए, तो वह मनुष्य आनंद को उपलब्ध नहीं होगा। यह हो सकता है कि मनुष्य अपनी शक्ति का विस्तार इस अनंत जगत के दूर-दूर के कोनों में कर ले, लेकिन अगर वह शक्ति उसके अपने भीतर के विस्तार पर प्रविष्ट नहीं होती है, तो वह आनंद को उपलब्ध नहीं होगा।

आज तक कोई भी मनुष्य बाहर के जगत में कुछ भी पाकर आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है।

धर्म आंतरिक जगत में, आंतरिक जीवन में जीत का उपाय है। इसी जीत के एक विज्ञान का नाम जैन धर्म है। जैन धर्म का अर्थ है: जीतने का, विजय का, आंतरिक विजय के उपाय का धर्म।

अपने भीतर हम कैसे विजय को उपलब्ध हो सकते हैं? हम थके हुए, हारे हुए लोग, जो सब तरफ जीत लेंगे, लेकिन भीतर हारे हुए हैं।

और भीतर जिनकी कोई जीत नहीं है। जिन्हें थोड़ा सा क्रोध उठेगा और जो उस पर नियंत्रण न रख सकेंगे; जिन्हें थोड़ा सा मोह उठेगा और जो उसको जीत न सकेंगे; जिनके अपने भीतर इतने शत्रु हैं-अपने ही भीतर, अपने ही शत्रु-जिन पर किसी पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं; हमारा अपना मन है और हम उसके मालिक नहीं, ऐसे हारे हुए लोग अगर बाहर कुछ भी जीत लें, उस जीत का कोई मूल्य नहीं है।

जीत का पहला चरण अपने भीतर रखना होता है। जैन धर्म अपने भीतर जीत को हम कैसे संभव बनाएं, इस बात की एक पद्धति और विज्ञान है।

हमारा मन है, और हमारा मन कहने को हमारा है, हमारा जरा भी नहीं है। कहने को हम कहेंगे, हमारा मन है। हमारा उस पर कोई वश नहीं है। जंगली घोड़े की तरह है, जिस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। जिसे हम जीवन भर साधने की कोशिश करते हैं। स्वयं थक जाते हैं और टूट जाते हैं और कोई साधना, कोई विजय उस पर हो नहीं पाती।

धर्म मन को जीतने का उपाय है। लोग सोचते हैं: धर्म मन से लड़ने का उपाय है। बिलकुल ही गलत सोचते हैं। आप हैरान होंगे, शत्रु पर कभी भी विजय नहीं हो पाती है। शत्रु पर कभी भी विजय नहीं हो पाती है!

शत्रु को मारा जा सकता है, शत्रु पर कभी विजय पूरी नहीं होती। शत्रु टूट सकता है, खंडित हो सकता है, लेकिन शत्रु हमेशा अपराजित होता है, उसके भीतर आपकी विजय की स्वीकृति कभी नहीं होती। शत्रु आज तक नहीं जीता गया, केवल मित्र जीते जाते हैं।

केवल मित्र पर विजय होती है। जो अपने जीवन की आंतरिक शक्तियों से मित्रता साध लेगा, वह विजेता हो सकता है।

साधारणतया लोग बहुत विपरीत ढंग से धर्म को सोचते हैं। वे सोचते हैं कि महावीर या बुद्ध या कृष्ण या क्राइस्ट, ये सब मन से शत्रुता करने को कह रहे हैं।

यह बात बहुत झूठ है। वे कोई भी शत्रुता करने को नहीं कह रहे हैं। वे विजय करने को कह रहे हैं। और विजय का अर्थ केवल मैत्री में ही परिपूर्ण होता है।

जिसके भीतर एक मैत्रीपूर्ण स्वर और संगीत का निर्माण होता है, उसके चारों तरफ एक मैत्रीपूर्ण स्वर और संगीत का निर्माण हो जाता है। उसका जीवन और उसका जगत आनंद में परिणित हो जाता है।

और जिसके भीतर शत्रु हैं, उसका जीवन और जगत दुख में परिणित हो जाता है।

धर्म कुछ छोड़ने, कुछ त्याग करने का मार्ग नहीं है। धर्म वस्तुतः कुछ पाने और उपलब्ध करने का मार्ग है। इस संगीत को, इस आनंद को उपलब्ध करने का मार्ग है।

और तपश्चर्या दमन नहीं है। तपश्चर्या, अपने भीतर संगीत उपलब्ध करने का एक मैत्रीपूर्ण उपाय और व्यवस्था है। साधारणतः हम जिस रूप में धर्म को और तपश्चर्या को लेते हैं, उसमें एक विरोध… और मैं आपसे कहूं, एक तरह की हिंसा मौजूद होती है। हमारे भीतर ही हम हिंसा करते हैं।

महावीर जो किसी के प्रति हिंसक होने को नहीं कहते, असंभव है कि अपने प्रति हिंसक होने को कह सकें। और जो अपने प्रति हिंसक है, वह किसी के प्रति इस जगत में अहिंसक नहीं हो सकता है।

जिसे अपने भीतर के जगत से ही प्रेम नहीं, उसे किससे प्रेम होगा?

और जो अपने ही प्रति हिंसक बन जाता हो, वह किसके प्रति हिंसक बनने से बच सकेगा?

साधारणतः जिन्हें हम धार्मिक कहते हैं, वे अपने पर ही हिंसा-हिंसा करते हुए प्रतीत होंगे। वे अपने शरीर पर और मन पर दमन करते प्रतीत होंगे। वे अपने से लड़ते हुए प्रतीत होंगे। अपने को तोड़ते हुए प्रतीत होंगे।

यह हो सकता है, इस जबर्दस्ती और दमन के परिणाम में कोई व्यक्ति अपने बाहर एक नैतिक जीवन को स्थापित कर ले। लेकिन, वह नैतिक जीवन थोथा और झूठा और मिथ्या होगा। क्योंकि उसके भीतर के शत्रु जो दबाए गए हैं, दबे हुए होंगे, समाप्त नहीं होंगे। जिसे दबाया गया है, जिसे जबर्दस्ती दमन किया गया है वह मौजूद होगा और निरंतर धक्के देता रहेगा और किन्हीं अचेतन तलों पर, मन की किसी अचेतन पर्तों पर उपस्थित होगा।

और निरंतर उसकी संभावना होगी विस्फोट की, निरंतर उसकी संभावना होगी कि व्यक्ति को तोड़ दे और व्यक्ति को विक्षिप्त कर दे, उसके संगीत को नष्ट कर दे। (जो विजय मैत्री से परिपूर्ण है वही मुक्ति है, वही कैवल्य ज्ञान को उपलब्ध होना है)

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मुक्ति तो तब होती है जब श्रेष्ठतर उपलब्ध हो जाता है।

निकृष्ट से मुक्ति तब है जब श्रेष्ठ का आगमन हो जाता है। अंधेरे से मुक्ति तब है जब प्रकाश का आगमन हो जाता है।

महावीर ने अहिंसा नहीं साधी, महावीर ने ब्रह्मचर्य नहीं साधा, महावीर ने अपरिग्रह नहीं साधा-महावीर ने आत्मा साधी है। आत्मा जैसे-जैसे सधती गई, आत्मा के अज्ञान में जो जीवन का व्यवहार था वह परिवर्तित होता गया।

अब्रह्मचर्य केवल अज्ञान की सूचना है।

परिग्रह केवल अज्ञान की सूचना है।

असत्य केवल अज्ञान की सूचना है।

ये सूचनाएं हैं, ये लक्षण हैं। ये बीमारियां नहीं हैं। स्मरण रखें, परिग्रह, अब्रह्मचर्य, मोह, ईर्ष्या, तृष्णा, ये बीमारियां नहीं हैं, ये बीमारी के लक्षणमात्र हैं।

बीमारी अज्ञान है।

जो इन लक्षणों को मिटाने में लगेगा, वह नासमझ है।

किसी को उत्ताप हो, किसी को ज्वर हो और कोई उसके शरीर को केवल ठंडा करने में लगा रहे तो नासमझ है। शरीर पर जो उत्ताप मालूम हो रहा है, ज्वर मालूम हो रहा है, वह लक्षण है। वह बीमारी नहीं है। बीमारी कहीं भीतर है। शरीर गर्म है, यह सूचना है।

और यह सूचना हितकर है। अगर भीतर बीमारी हो और शरीर गर्म न हो तो आदमी की समाप्ति हो जाएगी, बीमारी का पता नहीं चलेगा।

प्रकृति की व्यवस्था बड़ी अदभुत है: भीतर बीमारी हो, बाहर लक्षण प्रकट कर देती है। ताकि आपको ज्ञात हो जाए कि बीमारी है और औषधि का इंतजाम करें।

आपके भीतर परिग्रह है, चीजें इकट्ठी करना चाहते हैं; आपके भीतर मोह है,

लोगों से लिप्त होना चाहते हैं; आपके भीतर ईर्ष्या है, घृणा है, हिंसा है, ये सूचनाएं हैं प्रकृति की। इन्हें गाली देने की, इनको बुरा कहने की कोई जरूरत नहीं है। इनकी निंदा करने की कोई जरूरत नहीं है।

ये सूचनाएं हैं कि भीतर आत्म-अज्ञान है।

इन सूचनाओं को मान कर औषधि को तलाश करने की बात है। धर्म लक्षणों को दूर करने का उपाय नहीं, बीमारी को दूर करने का उपाय है। लक्षणों को दबाना नहीं, औषधि और चिकित्सा करनी है।

धर्म इसलिए उपचार है उसका जो भीतर हमें ग्रंथि की तरह पकड़े है।

भीतर अज्ञान है, मुझे ज्ञात नहीं मैं कौन हूं?

और इसलिए सारे विकार बाहर प्रकट होते हैं।

मुझे स्मरण हो जाए, मैं कौन हूं, बाहर सारे लक्षण विलीन होने शुरू हो जाएंगे।

मुझे दिख जाए, मैं कौन हूं, बाहर क्रांति अपने आप घटित हो जाएगी।

महावीर ने कहा: जिसे ज्ञान उपलब्ध हो, सम्यक ज्ञान उपलब्ध हो, उसका आचरण अपने आप सम्यक हो जाएगा। सम्यक आचार सम्यक ज्ञान का अनिवार्य परिणाम है। आचरण साधना नहीं है, साधना ज्ञान है। आचरण परिणाम है।

जो निषेध और नकार से चलेगा, वह आचरण साधेगा, और सोचेगा ज्ञान आ जाए।

जो विधायक धर्म को समझेगा, वह ज्ञान साधेगा, और विश्वास, आस्था रखेगा, निष्ठा रखेगा कि आचरण परिवर्तित होगा। अज्ञान केंद्र है अनाचार का, तो ज्ञान केंद्र होगा सद-आचार का। अनाचार को सदाचार में नहीं बदलना है, अज्ञान को ज्ञान में बदलना है। अज्ञान ज्ञान में परिणित हो, जीवन अपने आप परिणित हो जाता है।

कैसे यह अज्ञान ज्ञान में परिणित हो?

हम निश्चित ही… इतने आश्चर्य की बात है कि जो सारे जगत को जानता है वह अपने भीतर बिलकुल अज्ञान से भरा है। हम इतने लोग यहां हैं, हम सब एक-दूसरे को देख रहे हैं अपने को छोड़ कर! हमें सबकी उपस्थिति का पता है, अपनी उपस्थति का कोई भी पता नहीं!

उस प्रेजेंस का कोई पता नहीं जो आपके भीतर है! जिसकी वजह से आप उपस्थित हो और जिसके न होने पर अनुपस्थित हो जाओगे! सबकी उपस्थिति का पता है, एक की उपस्थिति का पता नहीं है: वह हम स्वयं हैं! (इसे हमारे भीतर अंधेरा है कहेंगे)

हजारों वर्षों का अंधेरा हो, दीया एक ही क्षण में दूर कर देगा। अंधेरा एक दिन का है कि एक करोड़ दिन का है, अंतर नहीं पड़ता, दीये के लिए बराबर है। (किस उम्र में आप संन्यास लेते हैं उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, आपने अंधेरा दूर करने का संकल्प लिया यानी रोशनी हो गई। उसके लिए संसार में जैसे पहले जीवन जी रहे थे वैसे ही जीते रहना है बस होंश रखना है किसी एक कार्य को करते समय, इसे ही ओशो दिया जलाना कहते है)

अज्ञान हमारा कितना ही घना हो, एक किरण हमारे भीतर फूटे, सारा अंधेरा जीवन का विलीन हो जाएगा। और वह किरण फूट सकती है। इसलिए फूट सकती है, इसलिए फूट सकती है कि जब हम अपने को नहीं जान रहे, तब कम से कम इतना तो जान रहे हैं कि अपने को नहीं जानते हैं।

होश है।

जो इतना जान रहा है कि मैं अपने से परिचित नहीं हूं, वह काफी जान रहा है।

होश मौजूद है।

ज्ञान मौजूद है। यह ज्ञान कम नहीं है। पत्थर को यह ज्ञान नहीं है, पशु को यह ज्ञान नहीं है-यह ज्ञान नहीं है कि मैं अपने को नहीं जानता।

धर्म का पहला आघात व्यक्ति पर यह होता है कि उसे पता चल जाए कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। धर्म का पहला आघात व्यक्ति पर यह होता है कि उसे पता चल जाए कि मैं अपने को नहीं जानता हूं! उसे स्मरण हो जाए कि मेरा नाम जिसे मैं समझता हूं मैं हूं, मैं नहीं हूं।

उसे स्मरण हो जाए कि जिस देह को मैं समझता हूं मैं हूं, वह मैं नहीं हूं।

देह तो सतत परिवर्तनशील है। एक क्षण को भी देह वही नहीं है जो एक क्षण पहले थी। आप जो इस कक्ष में आए थे, वही वापस नहीं लौटेंगे जो आए थे। शरीर परिवर्तित हो गया होगा। शरीर वृद्ध हो गया होगा। शरीर में बहुत कुछ मर गया होगा। कोई सात करोड़ छोटे-छोटे कोष्ठ आपके शरीर को बनाए हैं, उनमें बहुत मर जाएंगे इस घंटे में। नये स्थापित हो जाएंगे। आपका शरीर घंटे भर में बहुत बदल जाएगा।

यूनान में विचारक हुआ, हेराक्लतु। उसने कहा है कि आप एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते हैं। ‘यू कैन नॉट स्टेप ट्‌वाइस इन दि सेम रिवर-एक ही नदी में दुबारा नहीं उतर सकते।’

…हेराक्लतु ने ठीक कहा है।

मैं आपसे कहता हूं: आप एक ही व्यक्ति से दुबारा नहीं मिल सकते। वह आदमी बदल जाएगा। वह दूसरा हो जाएगा। सतत प्रवाह है। शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है और प्रतिक्षण मर रहा है। शरीर एक क्षण को ठहरा हुआ नहीं है।

मन भी एक क्षण को ठहरा हुआ नहीं है। वहां भी विचार सतत बदल रहे हैं। एक क्षण को वहां ठहराव नहीं है। जो अभी प्रेम से भरा था, थोड़ी देर में घृणा से भर जाता है। जो अभी अच्छे विचार करता था, थोड़ी देर में बुरे विचार करने लगता है। जो थोड़ी देर पहले करुणा से भरा था, हिंसा से भर जाता है। विचार सतत बदल रहे हैं, वहां एक क्षण को ठहराव नहीं।

जरा भीतर देखें, जरा एक क्षण वहां जागें, वहां पाएंगे कि फिल्म की फिल्म विचारों की चली जा रही है। आप यहां बाहर ही किसी सिनेमागृह में बैठे हों तो गलती में हैं, हरेक के भीतर एक सिनेमागृह बना हुआ है, हरेक के भीतर फिल्म का एक दौर चल रहा है।

भीतर भी सतत परिवर्तन है। देह भी परिवर्तित हो रही है, सतत प्रवाह में है। मन भी परिवर्तित हो रहा है, सतत प्रवाह में है।

लेकिन फिर भी हमें स्मरण है कि मैं बच्चा था, आज युवा हूं, कल बूढ़ा हो जाऊंगा।

हमारे भीतर अनस्यूत कोई एक, कंटिन्युअस कोई एक, कांस्टेंट कोई एक सतत अपरिवर्तित तत्व भी मौजूद है, जो सारे परिवर्तन को अनुभव करता है और परिवर्तित नहीं होता है।

अगर हमारे भीतर ऐसा कोई अपरिवर्तित तत्व न हो, तो हमें स्मरण नहीं हो सकता है। (किसी कांस्टेंट जैसे मीटर का नाप, सेकंड का नाप का रिफरेन्स लिए बग़ैर कोई भी नाप मुश्किल है)

मुझे याद है, एक वर्ष पहले मैं कहां था। शरीर बदल गया, मन बदल गया।

फिर यह किसे बोध है कि मैं वर्ष भर पहले कहां था?

वर्ष भर की स्मृति किसके साथ टिकी है?

मैं बच्चा था, यह किसके साथ टिका है?

अगर मेरे भीतर सब बदलता होता, स्मृति असंभव हो जाती। स्मृति है, यह इस बात की सूचना है कि स्मृति के पीछे कोई शाश्वत, कोई नित्य, कोई अपरिवर्तित तत्व मौजूद है।

वही हमारी आत्मा है।

जो स्मृति को समझेगा, वह पाएगा, हमारे भीतर कोई एक अपरिवर्तित मौजूद है।

उस अपरिवर्तित को जानना है।

उसको जानने से आत्म-ज्ञान होगा।

और जब तक हम उसको मानते रहेंगे जो कि परिवर्तित हो रहा है, तब तक आत्म-अज्ञान होगा।

मनुष्य के भीतर दो हैं: एक है जो परिवर्तित हो रहा है और एक है जो परिवर्तित नहीं हो रहा है। उसकी परिधि परिवर्तित हो रही है, उसका केंद्र अपरिवर्तित है।

परिवर्तित को जानना अज्ञान है।

अपरिवर्तित को जान लेना ज्ञान है।

जो परिवर्तित को जान रहा है, वह संसार को जान रहा है।

जो अपरिवर्तित को जान लेगा, वह मोक्ष को जान लेता है।

कैसे उसे जानेंगे?

कैसे अपरिवर्तित से संयुक्त होंगे?

समस्त धर्म और समस्त साधना इतनी ही है कि उस अपरिवर्तित से हम संयुक्त हो जाएं। हमें परिवर्तित जो हो रहा है, उससे अपने तादात्म्य को, आइडेंटिटी को तोड़ लेना होगा। हमारा जो तादात्म्य है परिवर्तित से उसे तोड़ लेना होगा।

वे दीवालें गिरा देनी होंगी, उन दीवालों से हमें अपने को मुक्त कर लेना होगा जो परिवर्तनशील हैं। मुझे जानना होगा कि जो भी परिवर्तित हो रहा है वह मैं नहीं हूं।

मुझे स्मरण करना होगा, मुझे इस स्मृति को निरंतर केंद्रीभूत रूप से स्थायी करना होगा कि जो भी परिवर्तित हो रहा है, वह मैं नहीं हूं।

यह निरंतर स्मरण: यह देह मैं नहीं हूं, यह परिवर्तित हो रही है; यह चित्त मैं नहीं हूं, यह परिवर्तित हो रहा है; यह श्वास मैं नहीं हूं, यह परिवर्तित हो रही है। देह, प्राण और चित्त, तीनों मैं नहीं हूं, ये परिवर्तित हो रहे हैं।

मुझे धीरे-धीरे इस तादात्म्य को क्रमशः तोड़ कर इस बोध में स्थापित, प्रतिष्ठित होकर कि मैं परिवर्तित नहीं हूं उसकी तरफ सरकना होगा। क्रमशः परिवर्तित की दीवालें गिरती जाएंगी और मुझे अपरिवर्तित का बोध प्रारंभ हो जाएगा।

एक घड़ी होगी, एक क्षण होगा जब विस्फोट होगा: परिवर्तित दूर पड़ा दिखाई पड़ेगा और अपरिवर्तित का अनुभव होगा।

उस अपरिवर्तित का अनुभव आत्मा है।

आत्मा कोई शब्दों से, शास्त्रों से, प्रवचनों से नहीं जानी जाती, अपने भीतर प्रवेश से जानी जाती है।

और अपने भीतर प्रवेश के तीन ही द्वार हैं। यह देह है, यह प्राण हैं और यह चित्त है। और ये तीनों परिवर्तनशील हैं। एकांत क्षण में, अकेले में उस परिवर्तित प्रवाह से अपने को क्रमशः मुक्त करने का नाम ध्यान है।

और मुक्त कर लेने की चरम अवस्था का नाम समाधि है।

महावीर बारह वर्षों में यही करते थे। महावीर, या कोई भी साधक एकांत में यही करता है। क्रमशः भीतर सरकता है, परिवर्तित से तादात्म्य तोड़ता है, स्मरण स्थापित करता है-’यह मैं नहीं हूं।’ उस क्षण तक कहता चला जाता है-’यह मैं नहीं हूं, यह मैं नहीं हूं’-जब तक कि वही केवल शेष नहीं रह जाता जो कि वह है। उस घड़ी एक क्रांति, एक परिवर्तन, एक ट्रांसफार्मेशन घटित होता है। और आप पहली दफा उस अनंत (ज्योति) को जान पाते हैं जिसकी कोई सीमा नहीं।

धर्म उस ज्योति को जानने का विज्ञान है। धर्म उस ज्योति को जानने का विज्ञान है! जानना होगा, क्योंकि उसे बिना जाने चैन और शांति न मिलेगी। जन्मों-जन्मों दौड़ें कितना ही, उसे जाने बिना शांति न मिलेगी। वही विश्राम का स्थल है।

कितना ही कोई दौड़े एक दिन उसे उसी को जानना होगा।

प्रभु करे, वह क्षण यही क्षण बन जाए हमारा और हम उसे जान सकें।

प्रभु करे, हम उस अनंत से, उस आनंद से, अमृत से संयुक्त हो सकें।

आपकी क्षुद्र क्रियाएं वहां नहीं पहुंचाएंगी। आपकी पूजा और अर्चना वहां नहीं पहुंचाएगी। आपके दो कौड़ी के दान-धर्म वहां नहीं पहुंचाएंगे। आपके खड़े किए हुए मंदिर और शिवालय और मस्जिद वहां नहीं पहुंचाएंगे। आपका कुछ भी किया हुआ वहां नहीं पहुंचाएगा।

क्योंकि आपका सब किया हुआ आपके घेरों को बनाता है, दीवालों को बनाता है। दीवालों को मिटाता नहीं।

आपका सब किया हुआ आपके अहंकार की दीवाल को मजबूत करता है-’मैं कुछ हूं।’

दानी को लगता है ‘मैं कुछ हूं।’

पंडित को लगता है ‘मैं कुछ हूं।’

साधु को लगता है ‘मैं कुछ हूं।’

जिसको लगता है ‘मैं कुछ हूं’ वह धार्मिक नहीं है। जिसको लगता है ‘मैं कुछ भी नहीं हूं।’ जो निरंतर ‘कुछ भी नहीं’ की तरफ चल रहा है, जो धीरे-धीरे ‘मैं’ को विसर्जित कर रहा है और विलीन कर रहा है और शून्य हो रहा है।

जिसे लगता है मेरा किया हुआ कुछ नहीं, मैं कुछ नहीं, मेरे पास कुछ नहीं। जो इस तरह अकिंचन से अकिंचन होता चला जाता है और एक दिन शून्य हो जाता है। उसे याद भी नहीं रहता कि मैं हूं। उस घड़ी में जब आपको याद भी नहीं है कि आप हैं, जब स्मरण भी नहीं है कि मैं हूं, तब आप उसे जानते हैं जो वस्तुतः आप हैं, जो वस्तुतः (आपका) मैं है। ( इस परिचय को ही ओशो सम्यक् दर्शन कहते हैं। इस दर्शन तक की आपकी यात्रा को ही सम्यक् ज्ञान कहते हैं क्योंकि अब आपको पता चल गया कि यह आपने कैसे किया है। और अब आपका आचरण कभी ग़लत नहीं होगा, क्योंकि आपने अपने को जान लिया तो सबको भी उसी समय जान लिया वही सम्यक् आचरण है।)

‘मैं’ के भूल जाने पर आत्मा का उदय होता है।

इसलिए कोई ऐसा न कहे कि मेरी आत्मा! मेरी और तेरी आत्मा नहीं होती। जहां न ‘मैं’ होता है न ‘तू’ होता है, वहां आत्मा होती है।

वहां जब सब ‘मैं-तू’ के बोध और घेरे गिर जाते हैं, हम अनंत आत्मा से संयुक्त होते हैं। यह सबके भीतर है, यह विराट सबके पास है।

थोड़ा ही, थोड़ा ही संकल्प, थोड़ी ही अभीप्सा, थोड़ी ही आकांक्षा और प्यास की बात है और उपलब्ध हो सकता है।

एक क्रांति की और साहस की बात है।

धर्म एक साहस की बात है, दुस्साहस की बात है, क्योंकि घेरे तोड़ने पड़ते हैं। संसार साहस की बात नहीं है, क्योंकि घेरे मजबूत होते हैं। घेरो में सुरक्षा है।

धर्म साहस है, क्योंकि घेरे तोड़ कर असुरक्षा को आमंत्रित करना है।

असुरक्षा को आमंत्रित करने को मैं संन्यास कहता हूं।

सुरक्षा को आमंत्रित करने को मैं गृहस्थ कहता हूं।

जो सुरक्षा को आमंत्रित कर रहा है, वह गृहस्थ है। जो असुरक्षा को आमंत्रित कर रहा है, वह संन्यासी है। जो असुरक्षा को आमंत्रित कर रहा है, वह घेरों को तोड़ेगा। वह मूल अहंकार के ‘मैं’ के घेरे को तोड़ेगा। ‘मैं’ का घेरा विसर्जित हो जाए, ‘मैं’ की बूंद गिर जाए, तो ब्रह्म का सागर उपलब्ध हो जाता है।

बूंद खोना है, सागर उपलब्ध करना है। बहुत सस्ता सौदा है। इस सौदे के लिए आपको आमंत्रित कर रहा हूं।

- ओशो, पथ की खोज, #5 पथ की खोज कॉपीराइट ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, पुणे

सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:-

सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।

मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

Originally published at https://philosia.in on May 21, 2024.

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Written by Sandeep Kumar Verma

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