दृष्टि की भूल, प्यास और होंश — ये तीन पर सतत नज़र हो, तो आप जो भी करें साधना या प्रार्थना ही कर रहे हैं। | Philosia: The Art of seeing

Sandeep Kumar Verma
8 min readMay 18, 2024

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ओशो ने बॉम्बे के अलंकार थियेटर में 08, 09 और 10 सितंबर 1964 को सुबह और शाम को कुल छः प्रवचन दिये जिनको ‘पथ की खोज’ नाम की किताब में पढ़ा जा सकता है। उसके 08 सितंबर सुबह 10 बजे दिये व्याख्यान से कुछ अंश मेरे अनुभव में डुबोकर देने का प्रयत्न किया है।

ओशो, 08/09/1964 10:00 AM, अलंकार थियेटर, बॉम्बे

किसी को उपदेश देना किसी का अपमान करना है।

किसी को शिक्षा देना यह स्वीकार कर लेना है कि दूसरी तरफ जो है वह अज्ञानी है। इस जगत में कोई भी अज्ञानी नहीं है।

इस जगत में किसी के अज्ञानी होने की संभावना भी नहीं है। क्योंकि हम स्वरूप से ज्ञानवंत हैं । मैं जो हूं, वह स्वरूप से ज्ञानवंत है।

अज्ञान हमारी कल्पना है। अज्ञान हमारा आरोपित है। अज्ञान हमारा अर्जित है।(समाज के लोगों ने हमको पालने पोसने की क़ीमत के रूप में हमारे ऊपर बड़े subtle तरीक़े से थोपा है और उसको ही सही समझकर बाक़ी अज्ञान हमने अर्जित किया है। इसको समझ लेना और अनावश्यक बोझ से मुक्त हो जाना भीतर की यात्रा के लिए आवश्यक है।)

हम ज्ञानवंत हैं-और इस सत्य को केवल अगर उदघाटित कर दें अपने भीतर, तो ज्ञान कहीं बाहर से लाना नहीं होता है। जो भी बाहर से आए, वह ज्ञान नहीं है। जो बाहर से आ जाए वह ज्ञान नहीं हो सकता। बाहर से आया हुआ सब अज्ञान है।

मैं तो परिभाषा ही यह कर पाया कि जो बाहर से आए-अज्ञान, जो भीतर से जाग्रत हो-ज्ञान।

जैन दर्शन की मौलिक क्रांति यही थी कि उसने पूजा को कह दिया अज्ञान है। अर्चना को, आराधना को कह दिया अज्ञान है। किसी की शरण में जाने को कह दिया अज्ञान है। सब शरण ‘पर’ हैं। किसी की शरण नहीं जाना है ज्ञान उपलब्ध करने को। किसी की पूजा नहीं करनी है।

ज्ञान उपलब्ध है, अगर मैं शांत अपने भीतर देखने को राजी हो जाऊं, इसी क्षण ज्ञान के झरने फूट सकते हैं।

बाह्य से मुक्त, बाह्य से पृथक चैतन्य ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।

मेरे देखे, कैसे हम उसे पा सकते हैं जो भीतर बैठा है, जिसे कभी खोया नहीं?

और कैसा आश्चर्य मालूम होता है: जिसे कभी खोया नहीं, उसकी तलाश है!

जिसे खो नहीं सकते हैं उसकी खोज है! जो खोज रहा है, वही गंतव्य है। और बाहर भटक रहा है और खोज रहा है।

हमने खोया नहीं है कुछ।

केवल हमारी दृष्टि उस पर नहीं है जिसकी हम तलाश कर रहे हैं। गलत दिशा में देख रहे हैं। केवल दिशा की भूल है। कुछ खोना नहीं हुआ है। केवल दिशा की भूल है! केवल आंखें अन्यथा में, अन्य दिशा में देख रही हैं। जो आंख ‘पर’ को देख रही है, उसी आंख को ‘स्व’ पर परिवर्तित करना साधना है।

धर्म ईश्वर से संबंधित नहीं है। धर्म जगत के रहस्य को खोजने से संबंधित नहीं है। धर्म सृष्टि के जन्म की, प्रलय की कथा खोजने से संबंधित नहीं है। धर्म व्यक्ति के भीतर कौन छिपा बैठा है, उस रहस्य को खोज लेने से संबंधित है।

जो एक के भीतर बैठा है, वही सबके भीतर बैठा है। एक की कुंजी को खोल लें, सबका रहस्य खुल जा सकता है। जो अपने को खोल कर जान लेगा, आविष्कृत कर लेगा, वह सारे जगत को खोल कर उसमें देख लेगा।

व्यक्ति के भीतर कौन बैठा है?

साथ लिए हैं, वही हम हैं। आंख उस पर नहीं है, आंख कहीं बाहर अन्यथा दौड़ रही है। आंख का परिवर्तन, दृष्टि का परिवर्तन साधना है। दृष्टि का परिवर्तन योग है। दृष्टि का परिवर्तन धर्म है।

आज की इस सुबह कैसे वह आंख परिवर्तित हो सकती है अपनी तरफ, कैसे हम स्व-बोध को उपलब्ध हो सकते हैं, उसी संबंध में थोड़े से इशारे करना चाहता हूं।

मैंने सुना है, वहां पहाड़ों में, वहां हिमालय में और हिमालय की आस-पास की घाटियों में होता है एक पक्षी, एक छोटी सी चिड़िया। और एक बहुत दर्द भरी आवाज घाटियों में, नदी के किनारों पर, झरनों पर उसकी गूंजती रहती है। उस आवाज के पास एक लोककथा पहाड़ों में प्रचलित हो गई है।

वह चिड़िया गुंजाती रहती है, चिल्लाती रहती है सुबह-सांझ, रात्रि के अंधेरे में। उसकी आवाज बहुत दर्द भरी है। वह आवाज है: जुहो! जुहो! जुहो! पहाड़ों पर, झरनों के किनारे यह आवाज गूंजती है।

हिमालय के पास की पहाड़ियों में इस शब्द का, जुहो का अर्थ होता है: जाऊं? जाऊं?

और इस शब्द के पास एक लोककथा गढ़ी गई है। वह कहानी आपसे कहूं।

कथा है: ऊपर पहाड़ की हरियालियों में और झरनों के करीब एक बहुत सुंदर युवती थी। पिता बहुत गरीब था। और गरीबी के कारण लड़की को मैदानों में ब्याह देना पड़ा। मजबूरी थी। जो झरनों के संगीत पर पली हो और हरियाली में और हिमाच्छादित शिखरों के करीब, उसकी उत्तप्त मैदानों में शादी कर देनी पड़ी। विवाह हुआ। वह युवती अपनी ससुराल आई।

किसी तरह वर्षा कटी, सर्दी कटी, फिर गर्मी का आगमन शुरू हुआ। और सूरज ऐसे तपने लगा जैसे आग हो। और उसकी पूरी चेतना आतुर होने लगी पहाड़ पर जाने के लिए। पहाड़ की शीतल ठंडक में पहुंच जाने के लिए आतुरता घनी होने लगी। उसने अपने पति से कहा कि मैं पहाड़ पर जाना चाहती हूं। पति ने आज्ञा दे दी।

उसने सुबह अपनी सास को कहा कि मैं पहाड़ जाना चाहती हूं, बहुत उतप्त है। मेरे प्राण आतुर हैं। सास ने कहा: कल चले जाना। पहाड़ी में शब्द है: ‘भोल जाला।’ कल चले जाना।

एक दिन और बीता प्रतीक्षा में, आकांक्षा में। उसने सुबह फिर कहा: जुहो? जाऊं?

सास ने कहा: भोल जाला। कल चले जाना। और एक दिन बीता। और दिन पर दिन बीतने लगे। और वही कथा रोज दोहराने लगी।

रोज वह पूछती: जुहो? जाऊं? सास कहती: भोल जाला। कल चले जाना।

आखिर जेठ का तपतपा लग गया, और आग बरसने लगी जमीन पर, और जमीन चिटकने लगी धूप से और चिड़ियां दरख्तों से लू खाकर गिरने लगीं।

उसने अंतिम दिन सुबह पूछा: जुहो? वही निश्चित उत्तर मिला: भोल जाला।

उसी सांझ कुछ लोगों ने उसे गांव के बाहर एक चट्टान के पास मरा हुआ पाया। शरीर उसका काला पड़ गया था। प्रतीक्षा धूमिल हो गई थी। आशा मर गई थी। उसने खाना-पीना छोड़ दिया था।

जब गांव के लोग बाहर सांझ को उसकी लाश को उठाने गए, तो जिस सूखे दरख्त के नीचे लाश पड़ी थी, उस पर से एक चिड़िया उड़ी और उसने कहा: जुहो? जाऊं? और बिना किसी की प्रतीक्षा उत्तर की किए चिड़िया पहाड़ों में उड़ गई। (अपने शरीर से संबंधित सारे संबंध और अहंकार को छोड़कर जाने की हिम्मत हो तभी भीतर के गौरीशंकर पर जाना हो पाता है, संसार तो कल पर टालता ही जाएगा)

तब से वह कहानी वहां पहाड़ों के पास प्रचलित है। मैंने उसको सुना, पढ़ा, मुझे तो बहुत प्रीतिकर लगी। मुझे तो लगा यह तो प्रत्येक आदमी के भीतर की कहानी है।

तो हर आदमी के भीतर कुछ है, जो हिमाच्छादित शिखरों पर उठ जाना चाहता है। कुछ है, जो प्रतिक्षण जानता है कि जहां मैं हूं, वहां के लिए मैं नहीं हूं। कुछ है, जो कहीं और शीतल, और शांति और आनंद के लोक में उठ जाना चाहता है। और जिसे जीवन का उत्ताप और पीड़ा और दुख सालते हैं और आतुरता से भरते हैं भीतर।

रोज भीतर कोई पूछता है: जाऊं?

रोज भीतर कोई उठना चाहता है शिखरों पर। लेकिन नीचे की गहराइयां और घाटियां और मजबूरियां और परिस्थितियां हुक्म देती हैं और कह देती हैं: भोल जाला। कल चले जाना।

मैं आज आपसे यह कहना चाहता हूं: इस ‘जाऊं’ को विकसित करना है और ‘कल चला जाऊंगा’ इस नासमझी में स्थगन नहीं करना है।

उन ऊंचाइयों पर उठने की प्यास को जगाना है तीव्रता से और कल के लिए स्थगित नहीं करना है। कल निश्चित नहीं है। कल कभी आता नहीं है। जो व्यक्ति कल पर छोड़ेगा, उसने हमेशा के लिए छोड़ दिया।

धार्मिक जीवन उत्तप्त आकांक्षा और प्यास का जीवन है। धार्मिक जीवन मंदिर जाने से और पूजा करने से संबंधित नहीं है। धार्मिक जीवन औपचारिक क्रियाकांड कर लेने से संबंधित नहीं है। धार्मिक जीवन बहुत जीवंत, उत्तप्त आकांक्षाओं से संबंधित है।

चौबीस घंटे जलती हुई एक आकांक्षा-हर घड़ी, हर काम में, दैनंदिन क्षुद्रतम बातों में भी, जीवन चाहे घाटियों में घूमें, लेकिन आंखें हिमाच्छादित शिखरों पर लगी हुई हों।

जीवन चाहे क्षुद्रतम में खड़ा हो, जीवन चाहे व्यर्थता में खड़ा हो, लेकिन आंखें सूरज को देखती हों। इतना हो जाए, इतना हो जाए, सीमा में खड़े हुए असीम पर आंख टिकी रहे, शेष सब अपने से हो जाएगा। शेष सब अपने से हो जाएगा!

दृष्टि सूरज पर हो, दृष्टि असीम पर हो, दृष्टि प्रकाश पर हो, फिर तो कोई चुंबक की तरह खींचेगा-आकर्षण। और शनैः-शनैः, एक छोटी सी किरण भी धीरे-धीरे परिपूर्ण प्रकाश में परिवर्तित हो जाती है।

प्यास की एक छोटी सी किरण तृप्ति के सागर में परिवर्तित हो जाती है। मैं अगर कुछ भी कर सकूं-थोड़ा सा भी हलन-चलन भीतर, थोड़ा सा कंपन, उतना पर्याप्त है। कोई शिक्षा जरूरी नहीं है-प्यास जरूरी है। कोई धार्मिक सिद्धांतों का विवेचन जानना जरूरी नहीं है-प्यास जरूरी है। और प्यास है, सब-कुछ है।”

-ओशो, पथ की खोज, #1 आनंद हमारा स्वरूप है। copyrights Osho International Foundation.

मेरे जीवन के अनुभव से कहता हूँ कि जो भी व्यक्ति अपना काम ईमानदारी से करता है, और अपनी स्थिति से संतुष्ट है। जो किसी को कष्ट देकर पैसा ऐंठना नहीं जानता। जो किसी भी रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ भौतिक सुख सुविधाओं की रेस में नहीं है। जो धार्मिक कार्यों में पूरे मन से लिप्त होकर ईश्वर के सामने सामान्य व्यक्ति की तरह भाग लेता है, यानी किसी पोजीशन मिलने पर ही बढ़चढ़कर भाग नहीं लेता। उसकी दृष्टि भीतर की तरफ़ ही है, उसके भीतर प्यास भी है लेकिन कुनकुनी है। उसने भीतर के ज्ञान को बाहरी प्रलोभनों से ज़्यादा प्राथमिकता दी है। और यह बहुत बड़ी उपलब्धि है क्योंकि कुनकुनी आग को थोड़े से होंश के प्रयोग से किसी भी उम्र में ज्वाला में बदला जा सकता है। जिसने भीतर के ज्ञान को तवज्जो देकर वर्षों साधा हो और कई सैक्रिफाइस किए हों उसे साधना या तपस्या में बदलते देर नहीं लगती।

सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:-

सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।

मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

Originally published at https://philosia.in on May 18, 2024.

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Written by Sandeep Kumar Verma

Spiritual seeker conveying own experiences. Ego is only an absence, like darkness, bring in the lamp_awareness&BeA.LightUntoYourself. https://linktr.ee/Joshuto

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