प्रभुजी की संगति के परिणाम महातम | Philosia: The Art of seeing

Sandeep Kumar Verma
13 min readMay 24, 2024

--

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।।

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

सुप्रसिद्ध भजन गायक अनूप जलोटा ने रैदास के इस भजन को घर घर पहुँचा दिया। और ओशो ने उसके पीछे रैदास की भावना को जैसे सबके सामने प्रकट कर दिया। तो मुझे लगा इसे भी घर घर पहुँचा देने का प्रयास किया जा सकता है। बाक़ी हरि इच्छा।

ओशो रैदास के संदेशों पर उनकी किताब ‘मन ही पूजा मन ही धूप’ में इस भजन पर रैदास की भावना को कुछ इस प्रकार प्रकट करते हैं:-

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।

होता है ऐसा अपूर्व अनुभव भी-जब तुम्हारी श्र्वास-श्र्वास उसकी गंध से भर जाती है, उसकी सुगंध से भर जाती है। मंदिरों में सदियों से हमने चंदन को मूल्य दिया है; वह केवल प्रतीक है। और प्रतीक कभी-कभी इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि हम भूल ही जाते हैं किसके प्रतीक हैं।

जैसे मील का पत्थर है, कोई उसी को पकड़ कर बैठ जाए कि आ गई मंजिल। मील का पत्थर मंजिल नहीं है। मील का पत्थर तो सिर्फ मंजिल की तरफ तीर है, एक इशारा है कि और आगे चले चलो।

जिन्होंने पहली दफा चंदन को खोजा होगा और पूजा का अंग बनाया होगा, चंदन के तिलक और टीके को प्रतीक बनाया होगा, उन्होंने किसी ऐसे ही रैदास जैसे अनुभव के कारण किया होगा।

प्रभुजी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी।।

लेकिन फिर कब…हम भूल गए। हम भुलक्कड़ हैं। सुंदर से सुंदर प्रतीक भी हमारे हाथों में पड़ कर अर्थहीन हो जाते हैं।

चंदन लगाया जाता है तृतीय नेत्र पर। वह केवल प्रतीक है। वह यह कह रहा है कि तुम्हारे तीसरे नेत्र में प्रभु चंदन की तरह समा जाना चाहिए। मगर बस ऊपर लगा लिया चंदन और काम समाप्त हो गया। स्त्रियां तीसरे नेत्र पर टीका लगाती हैं।

वह केवल प्रतीक है कि जिससे तुम्हें प्रेम है वह तुम्हारे तीसरे नेत्र तक समा जाना चाहिए, तो ही प्रेम है।

क्यों तीसरे नेत्र तक?

क्योंकि तीसरे नेत्र संसार की सीमा को निर्मित करते हैं, उसके पार तो फिर ब्रह्म है। तीसरा नेत्र है छठवां केंद्र; उसके बाद सातवां है सहस्रार, वह तो मुक्ति का द्वार है। फिर वहां न तो प्रेमी रह जाता है न प्रेयसी, न भक्त न भगवान।

लेकिन छठवें तक याद रहती है। तो अगर किसी से प्रेम किया हो तो वह ऐसा होना चाहिए जैसे तीसरी आंख तक में उसे देख लिया। देह ही नहीं देखी उसकी, उसकी आत्मा भी देख ली। दो आंखें हैं हमारे पास, ये तो केवल देह को देखती हैं।

इनसे हुआ प्रेम भी कोई प्रेम है?

वासना का ही एक नाम है। लेकिन इन दोनों आंखों के भीतर छिपी एक तीसरी आंख है-शिवनेत्र; उससे जब देखा तो प्रेम। तीसरी आंख जब किसी व्यक्ति से जुड़ जाती है, तुम उसकी आत्मा से जुड़े और एक हुए।

प्रेयसी को भी वहीं से देखो तो तुम्हारा प्रेम प्रार्थना बन जाएगा।

और गुरु को तो केवल वहीं से देखा जा सकता है।

चर्म-चक्षु देखने में असमर्थ हैं। चर्म-चक्षु तो केवल चमड़ी को ही देख सकते हैं। वही उनकी सीमा है। तुम्हारे भीतर एक अदृश्य दृष्टि है, दिखाई नहीं पड़ती। उस अगोचर दृष्टि से ही अगोचर को देखा जा सकता है।

तो तीसरे नेत्र पर स्त्रियां टीका लगाती रही हैं। मगर बस टीका लगा है और पति के साथ झगड़ा चल रहा है! ऐसी हमारे सारे प्रतीकों की गति हो गई है।

मंदिर गए, तिलक लगा लिया, चंदन घिस कर तीसरे नेत्र पर ऊपर से शीतलता पहुंचा दी और घर चले आए!

तुम्हारे तीसरे नेत्र पर परमात्मा चंदन की बास जैसा हो जाना चाहिए।

और चंदन को क्यों चुना है?

बहुत कारणों से चुना है। चंदन अकेला वृक्ष है जिस पर विषैले सांप लिपटे रहते हैं, मगर उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। चंदन विषाक्त नहीं होता। सर्प भला सुगंधित हो जाएं, मगर चंदन विषाक्त नहीं होता।

ऐसा ही यह संसार है-जहर से भरा हुआ।

इसमें तुम्हें चंदन जैसे होकर जीना होगा। यह तुम्हें विषाक्त न कर पाए, ऐसा तुम्हारा साक्षीभाव होना चाहिए। कि कीचड़ में से भी गुजरो तो भी कीचड़ तुम्हें छुए न। यह काजल की कोठरी है संसार; इससे गुजरना तो है; परमात्मा चाहता है कि गुजरो। जरूर कोई शिक्षा है जो जरूरी है। लेकिन ऐसे गुजरना जैसे कबीर गुजरे, रैदास गुजरे।

कबीर कहते हैं:

ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया! खूब जतन से ओढ़ी रे कबीरा!

कालख से भरी हुई काजल की इस कोठरी से गुजर गए, मगर बड़ी जतन से गुजरे, बड़े होश से गुजरे, कि परमात्मा ने जैसी चदरिया दी थी, ठीक वैसी की वैसी, बिना दाग-धब्बे के वापस लौटा दी।

साक्षीभाव हो तो संसार में से ऐसा ही गुजरा जा सकता है। इस साक्षीभाव के साथ संसार से गुजरने को ही मैं संन्यास कहता हूं। चंदन की तरह हो जाओ तो संन्यासी।

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

और जैसे बादल घिर आते हैं आषाढ़ में-घनघोर बादल-और मोर नाचने लगते हैं। ऐसे ही रैदास कहते हैं कि तुम घने बादलों की तरह छा गए हो और हम तो मोर हैं, हम नाच उठे। जिस व्यक्ति ने अपने भीतर अहर्निश प्रभु के नाद को सुना, उसे चारों तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है-वृक्षों में, पहाड़ों में, चांद-तारों में, लोगों में, पशुओं में, पक्षियों में। उसे सब तरफ परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है।

और जो सब तरफ परमात्मा से घिर गया है वह मोर की तरह नहीं नाचेगा तो कौन नाचेगा?

प्रभुजी तुम घनबन हम मोरा। जैसे चितवन चंद चकोरा।।

उसकी आंखें तो जैसे चकोर की आंखें चांद पर टिकी रह जाती हैं, बस ऐसे ही परमात्मा पर टिकी रह जाती हैं। हां, एक फर्क है। चकोर चांद से आंखें नहीं हटाता और ध्यानी हटाना भी चाहे तो नहीं हटा सकता, क्योंकि जहां भी आंख ले जाए वहीं उसे परमात्मा दिखाई पड़ता है; वहीं चांद है उसका।

कंकड़-कंकड़ में उसकी ही ध्वनि है, पत्ते-पत्ते पर उसी के हस्ताक्षर हैं। तो चकोर तो कभी थक भी जाए…थक भी जाता होगा। कवियों की कविताओं में नहीं थकता, मगर असली चकोर तो थक भी जाता होगा। असली चकोर तो कभी रूठ भी जाता होगा।

असली चकोर तो कभी शिकायत से भी भर जाता होगा कि आखिर कब तक देखता रहूं?

लेकिन चकोर के प्रतीक को कवियों ने ही नहीं उपयोग किया, ऋषियों ने भी उपयोग किया है। प्रतीक प्यारा है। चकोर एकटक चांद की तरफ देखता है; सारी दुनिया उसे भूल जाती है, सब भूल जाता है, बस चांद ही रह जाता है।

ठीक ऐसी ही घटना भक्त को भी घटती है। सब भूलता नहीं, सभी चांद हो जाता है। जहां भी देखता है, पाता है वही, वही परमात्मा है

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

प्यारे वचन हैं रैदास के। सीधे-सादे, लेकिन बड़े मधुर, बड़े मीठे। प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। तुम ज्योति हो, हम तुम्हारी बाती हैं। इतना ही तुम्हारे काम आ जाएं तो बहुत। तुम्हारी ज्योति के जलने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। तुम्हारे प्रकाश को फैलाने में उपयोग आ जाएं तो बहुत। यही हमारा धन्यभाग। कि हम तुम्हारे दीये की बाती बन जाएं। तुम्हारे लिए मिट जाने में सौभाग्य है; अपने लिए जीने में भी सौभाग्य नहीं है। अपने लिए जीने में भी दुर्भाग्य है, नरक है; और तुम्हारे लिए मिट जाने में भी सौभाग्य है, स्वर्ग है।

प्रभुजी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिनराती।।

और जो परमात्मा के लिए बाती बन गया है, उसे एक अनूठा अनुभव होता है। वह बाती जलती नहीं, समाप्त नहीं होती।

जाकी जोति बरै दिनराती।

दिन और रात जलती है, शाश्र्वत जलती है! (तुम्हारे कारण मैं बाती होकर भी शाश्वत हो जाऊँगा, ऐसे तो कैसे संभव हो पाएगा मुझ जैसे प्राणी के लिए)

वह जगत शाश्र्वत का है, क्षणभंगुर का नहीं। उससे जुड़ जाना शाश्र्वत हो जाना है। जैसे कोई बूंद सागर में गिर जाए तो सागर हो जाती है, ऐसे ही जो परमात्मा से जुड़ जाए, किसी बहाने-बाती बन कर जुड़ जाए, बूंद बन कर जुड़ जाए, चकोर की भांति जुड़ जाए-इससे फर्क नहीं पड़ता किस भांति कोई जुड़ जाता है, मगर परमात्मा से जुड़ते ही समय समाप्त हो जाता है। शाश्र्वत-न जिसका कोई प्रारंभ है, न कोई अंत-उसमें हम प्रवेश करते हैं।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

छोटे-छोटे प्रतीक, मगर खूब अर्थ भरे हैं, खूब रस भरे हैं।

प्रभुजी तुम मोती हम धागा।

कि तुम मोती हो, हमें धागा ही बना लो। इतने ही तुम्हारे काम आ जाएं कि तुम्हारी माला बन जाए। तुम तो बहुमूल्य हो, हमारा क्या मूल्य है! धागे का क्या मूल्य है! मगर धागा भी मूल्यवान हो जाता है जब मोतियों में पिरोया जाता है।

जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।

सुहागे का क्या मूल्य है, मगर सोने से मिल जाए तो मूल्यवान हो जाता है। प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। तुम मालिक हो। सूफी फकीर परमात्मा को सौ नाम दिए हैं, उसमें एक नाम सबसे ज्यादा प्यारा है, वह है-या मालिक!

कि तुम मालिक हो; हम तो ना-कुछ, तुम्हारे पैरों की धूल!

प्रभुजी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

यही हमारी भक्ति है कि हम तुम्हारे मोती में धागा बन जाएं, कि हम तुम्हारी ज्योति में बाती बन जाएं; कि तुम मालिक हो हम दास हो जाएं-बस इतनी हमारी भक्ति है।

और हमें भक्ति का शास्त्र नहीं आता, कि कितने प्रकार की भक्ति होती है, नवधा भक्ति; कि कितने प्रकार की पूजा-अर्चना होती है; कि कैसे व्यवस्था से यज्ञ करें, हवन करें। हमें कुछ नहीं आता।

हम तो धागा बनने को राजी हैं, तुम मोती हो ही। तुम्हारा क्या बिगड़ेगा? हमें धागा बन जाने दो। और तुम तो चंदन हो ही, और हम तो पानी हैं। बस तुम्हारी बास समा जाए, बहुत। और तुम तो ज्योति हो ही, तुम्हें बातियों की जरूरत तो पड़ती ही होगी न?

हम तुम्हारी बाती बनने को राजी हैं।

कहीं बिजली, कहीं गुलचीं, कहीं सैयाद का खतरा

फले-फूलेगी इस गुलशन में शाखे-आशियां क्योंकर

इस दुनिया में तो कोई खिल नहीं पाता। बड़ा मुश्किल है खिलना। कहीं बिजली!

यहां (शाश्वत) आशियां बनाओगे भी तो कैसे बनाओगे?

कब बिजली टूट जाएगी?

कहा नहीं जा सकता। कहीं शिकारी बैठा है, कहीं जाल डाले सैयाद बैठा है। यहां फंसने ही फंसने के उपाय हैं। कहीं बिजली, कहीं गुलचीं, कहीं सैयाद का खतरा।

वह चला आ रहा है माली तोड़ने कलियां; यहां फूल बनना मुश्किल है।

यह चमकी बिजली! यह जल गया गरीब पक्षी का घोंसला।

यह फैलाया सैयाद ने अपना जाल, कट गए पंख पक्षी के।

यहां चारों तरफ जाल ही जाल हैं। कहीं बिजली, कहीं गुलचीं, कहीं सैयाद का खतरा फले-फूलेगी इस गुलशन में शाखे-आशियां क्योंकर यहां बहुत मुश्किल है इस संसार में घर बन जाए। कोई कभी नहीं बना पाया।

घर बनाना हो तो परमात्मा में बनाओ। वहां कोई खतरा नहीं। (सबका वही एकमात्र शाश्वत घर है) न शिकारी, न जाल डालने वाला, न बिजलियां चमकती हैं वहां। वहां मौत नहीं। वहां बीमारी नहीं। वहां वृद्धावस्था नहीं। वहां शाश्र्वत यौवन है। वहां शाश्र्वत सौंदर्य है।

अमृत का वह लोक है!

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

इसलिए रैदास कहते हैं: हमने तो सब देख-समझ कर यही तय किया कि संगति करनी तो तुम्हारी। इस संसार में और कुछ संगति करने योग्य नहीं है।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

तुम्हीं हो हमारा संग-साथ, क्योंकि बाकी सब संग-साथ छूट जाते हैं। यहां कौन किसके साथ चलता है! कितनी देर चलता है! कब रास्ते बदल जाएंगे, कब मोड़ आ जाएंगे, कब तुम अपने रास्ते पर और कब तुम्हारा साथी अपने रास्ते पर हो जाएगा-कोई भी नहीं जानता! हर घड़ी मोड़ है। हर क्षण बिछुड़ जाने की संभावना है।

इसलिए तो प्रेमी डरे रहते हैं कि कहीं विछोह न हो जाए, क्योंकि विछोह प्रतिपल लटका है नंगी तलवार सा, कच्चे धागे में। कब गिर पड़ेगी तलवार और गर्दन कट जाएगी, कहा नहीं जा सकता। यहां कौन किसका संग-साथ सदा के लिए निभा पाया?

करनी हो संगति, दोस्ती ही करनी हो तो परमात्मा से करने योग्य है। संगति, जो कि शाश्र्वत होगी। एक दफा बनी तो फिर कभी मिटेगी नहीं। रेत के घर मत बनाओ; बहुत बना चुके और बहुत मिटा चुके।

प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी।

और उसकी संगति करनी हो तो एक ही कला है, एक ही सूत्र है-समर्पित हो जाओ। उसकी शरण गहो, ना-कुछ हो जाओ। मिटो।

कहो कि मैं नहीं हूं, तू ही है!

उससे संगति का राज यही है, यही सौदा है उसके साथ, यही शर्त है उसकी। कबीर ने कहा है: प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय। अगर तुम रहे तो परमात्मा नहीं रहेगा। अगर चाहते हो परमात्मा रहे तो अपने को पोंछ डालो, मिटा डालो।

गली-गली को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो।

देखते हो तुम रोज, गली-गली का जल, नाली-नाले सब पहुंच जाते हैं गंगा में। और सब पहुंच जाते हैं सागर में। गली-गली को जल बहि आयो, सुरसरि जाय समायो।
संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।

था तो नाली का, लेकिन मिल गया गंगा में, गंगोदक हो गया। संगति का महातम! संगति का महत्व! जिसके साथ जुड़ जाओगे वही हो जाओगे।

सदगुरु के पास बैठते-बैठते तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाएगी। ‘गुरु’ शब्द बड़ा प्यारा है। दुनिया की किसी भाषा में ऐसा शब्द नहीं है। दुनिया की भाषा में जो शब्द हैं, उनका अर्थ होता है: शिक्षक, अध्यापक, आचार्य। मगर गुरु, किसी भाषा में उसका समानार्थी शब्द नहीं है। क्योंकि गुरु की अनुभूति ही पूर्वीय है, मौलिक रूप से भारतीय है।

गुरु का अर्थ होता है-अंधेरे को जो दूर कर दे। गु का अर्थ होता है: अंधेरा; रु का अर्थ होता है: दूर करने वाला। गुरु का अर्थ हुआ: दीया, रोशनी, क्योंकि रोशनी अंधेरे को दूर कर देती है। रोशनी से जुड़ जाओगे, रोशनी हो जाओगे।

अरे देखते नहीं, रोज नाले और नालों का गंदा जल भी गंगा में जाकर गंगाजल हो जाता है! रोज देखते हो, फिर भी अंधे हो! संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।। और नाली का जल भी जब गंगा में मिलता है तो कुछ भेद नहीं रह जाता, गंगा उसे पवित्र कर लेती है।

सदगुरु शर्तें नहीं रखता कुछ और। यह नहीं कहता कि पापियों के लिए द्वार बंद हैं। सदगुरु है ही पापियों के लिए।

जीसस से किसी ने कहा कि तुम्हारे पास हम देखते हैं जुआरी भी आकर बैठ जाते हैं, शराबी भी आकर बैठ जाते हैं, गांव की वेश्या भी तुम्हारे पास आकर बैठ जाती है; तुम इन्हें भगाते नहीं, हटाते नहीं?

जीसस ने कहा: यह तो ऐसा ही होगा कि प्रकाश अंधेरे से डर जाए। यह तो ऐसे ही होगा कि चिकित्सक बीमारों को अपने पास न आने दे।

मैं हूं किसके लिए? (गुरु याने आत्मा का डॉक्टर)

मैं इन्हीं के लिए हूं! जिसने शराब पी है उसे परमात्मा पिलाऊंगा। और जो वेश्या है, जिसने अभी तन को ही जाना है और तन को ही पहचाना है और तन के पार जिसके जीवन में अभी प्रेम का कोई अनुभव नहीं है-उसे तन के पार का प्रेम अनुभव कराऊंगा। और जो जुआरी है, है तो हिम्मतवर, दांव तो लगाना जानता है-उसे मैं असली दांव लगाना सिखाऊंगा।

सदगुरु के पास किसी को इनकार नहीं है। जो भी डूबने को राजी है, सदगुरु उसे लेने को तैयार है। वह शर्तें नहीं रखता। वह पात्रताओं के बहुत बड़े जाल खड़े नहीं करता। अपात्र को पात्र बना ले, वही तो सदगुरु है। अयोग्य को योग्य बना ले, वही तो सदगुरु है। संसारी को संन्यासी बना ले, वही तो सदगुरु है।

संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।
स्वाति बूंद बरसै फनि ऊपर, सोहि विषै होई जाई।

सांप के ऊपर अगर स्वाति की बूंद भी गिरती है तो जहर हो जाती है। ओहि बूंद कै मोति निपजै, संगति की अधिकाई। लेकिन वही बूंद अगर सीपी में बंद हो जाती है तो मोती बन जाती है। बूंद वही है। सांप के साथ जहर हो जाती है; सीपी में बंद होकर मोती बन जाती है।

सदगुरु की सीपी में बंद हो जाओ तो मोती बन जाओगे। हम जिनके पास बैठते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। जिनके साथ उठते-बैठते हैं, उनका रंग चढ़ जाता है।

जाति भी ओछी करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा।

रैदास कहते हैं: जाति हमारी ओछी है, कर्म भी हमारा ओछा, व्यवसाय भी हमारा ओछा।

नीचै से प्रभु ऊंच कियो है, कहि रैदास चमारा।

वे एक क्षण को भी यह बात नहीं भूलते कि मैं चमार हूं और मुझ चमार को ऐसा ऊपर उठा लिया, ऐसा आकाश में उठा लिया। जिन हाथों ने मुझ चमार को कमल की तरह ऊपर उठा लिया है, उन हाथों का जितना धन्यवाद करूं उतना थोड़ा है।

रैदास कहते हैं कि मैं चमार था, शूद्र था, मेरा सब छोटा है-मेरी जाति, मेरा कर्म, मेरा व्यवसाय, सब छोटा है। लेकिन मुझ छोटे को भी तुमने क्या छुआ कि लोहा सोना हो गया। तुम पारस हो!

- ओशो, मन ही पूजा मन ही धूप, #9 संगति के परताप महातम, कॉपीराइट्स ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, पुणे

इस सोई हुए क्षमता को वापस जगाना है। जिसने इसे खोकर वापस पा लिया इसको उसे ही जागा हुआ व्यक्ति कहते हैं और जिसने नहीं पाया उसको सोया हुआ व्यक्ति कहते हैं रैदास/ओशो।

और जिसने उसे खोकर जगा लिया फिर वह कभी नहीं खोती। यह भीतर देखना ही प्रभुजी की संगति करना कहलाता है। इसको खोलने का प्रयास भी प्रभुजी की संगति करना कहलाता है। ओशो का बताया तरीक़ा आज के समय में कारगर है क्योंकि मुझे इसके अच्छे परिणाम मिले। आप भी प्रयोग करके देख सकते हो

“आशियां में न कोई जहमत न कफस में तकलीफ
सब बराबर हैं तबीयत अगर आजाद रहे

फिर न तो अपने घर में कोई फर्क पड़ता है और न कारागृह में। नीड़ हो अपना तो ठीक और हाथों में जंजीर हों और कैद हो तो ठीक।

और तबीयत कब आजाद होती है?

जब तुम निर्द्वंद्व हो जाते हो। जब तुम साक्षी रह जाते हो द्वैत के! जब इन दो आंखों के पार तुम एक आंख को पकड़ लेते हो, पहचान लेते हो! उसी एक आंख की तलाश संन्यास है, ध्यान है।” -ओशो, मन ही पूजा मन ही धूप, #10 आओ और डूबो कॉपीराइट ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, पुणे

सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।

मैंने ओशो के एक प्रवचन में बुद्ध के उदाहरण से सीखकर सुबह दांतों पर ब्रश करते समय होंश का प्रयोग (अणुव्रत) के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग मेरे विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

Originally published at https://philosia.in on May 24, 2024.

--

--

Sandeep Kumar Verma
Sandeep Kumar Verma

Written by Sandeep Kumar Verma

Spiritual seeker conveying own experiences. Ego is only an absence, like darkness, bring in the lamp_awareness&BeA.LightUntoYourself. https://linktr.ee/Joshuto

No responses yet