बचने की संभावना से ही भय है।
यह जो भीतर का स्वर है वह उस सागर का स्वर है, जो कहता है: मौत कहां? मौत कभी जानी नहीं!
हिंदू धर्म की यह ख़ासियत रही है कि बड़े अभिनव प्रयोग किए जाते रहे और उनके प्रभाव भी क़ाबिले तारीफ़ हैं।
बचपन में कई घरों में मैंने यह तस्वीर फ्रेम कड़ी हुई या मेले में पोस्टर के रूप में बिकते हुए देखी। तब मैं आश्चर्य करता था कि जब बचने की कोई संभावना ही नहीं है तो यह चित्र आख़िर इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया? अब जाकर पता चला कि इन सबके बीच भी हमारे भीतर कुछ है, जो प्रतिक्षण इस सत्य को झुठलाये चले जाता है।
वह अमरत्व की बूँद जिसको उघाड़ना हमारे जीवन का उद्देश्य है। यह जीवन हमको मनुष्य के रूप में मिला है एक तोहफ़े के रूप में, क्योंकि यह मिला बिना किसी क़ाबिलियत के, और ना मिलता तो हम इसकी शिकायत भी किसी को नहीं कर पाते। (ब्रेकेट में मेरे अनुभव से विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया है)
ओशो अपनी किताब में कहते हैं:-
शरीर से मेरा मतलब है, नाम-रूप से निर्मित जो दिखाई पड़ रहा है।
(जैसे पानी में साबुन घोलकर हम फुँकमारकर बनाते हैं एक बुलबुला, तो वह बुलबुला हुआ शरीर। और वह स्पेस या हवा जो अब उसके बाहर-भीतर है वह समझो हमारी आत्मा। और उस बुलबुले पर रंग बिरंगी लाइनें जो पड़ती हैं वो हमारे कर्म। ज्ञान प्राप्त होते ही अपनेआप बाहर भीतर की आत्मा से तादात्म्य बनता है और बबूला के साथ साथ उस पर की रंगीन कर्म रूपी लाइनों से भी तादात्म्य ख़त्म हो जाता है)
और आत्मा से मेरा मतलब है, नाम-रूप के गिर जाने पर भी जो होगा, नाम-रूप नहीं थे तब भी था।
आत्मा से मेरा मतलब है सागर और शरीर से मेरा मतलब है लहर।
और ये दोनों ही बातें एक साथ समझनी जरूरी हैं।
नहीं तो इन दोनों के बीच अगर भ्रम पैदा हो तो जगत की सारी कठिनाइयां खड़ी होती हैं।
भीतर हमारे तो वह है जो कभी मर नहीं सकता। इसलिए गहरे में हमें सदा ही ऐसा लगता है, मैं कभी न मरूंगा। लाखों लोगों को हम मरतेहुए देख लें, फिर भी भीतर यह प्रतीति नहीं होती कि मैं मरूंगा। इसकी गहरे में कहीं कोई ध्वनि पैदा नहीं होती कि मैं मरूंगा।
सामने ही लोग मरते रहें और फिर भी हमारे भीतर न मरने का भाव कहीं सजग होता है। किसी गहरे तल में ‘मैं नहीं मरूंगा’ यह बात हमेंजाहिर ही होती है। माना कि बाहर के तथ्य झुठलाते हैं।
और बाहर की घटनाएं कहती हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं न मरूंगा! तर्क कहते हैं कि जब सब मरेंगे तो तुम भी मरोगे। लेकिन सारेतर्कों को काट कर भी भीतर कोई स्वर कहे ही चला जाता है कि मैं नहीं मरूंगा। इसलिए इस जगत में कोई आदमी कभी भरोसा नहींकरता कि वह मरेगा।
इसीलिए तो हम इतनी मृत्यु के बीच जी पाते हैं, नहीं तो इतनी मृत्यु के बीच तत्काल मर जाएं। जहां सब मर रहा है, जहां प्रतिपल हरचीज मर रही है, वहां हम किस भरोसे जीते हैं? आस्था क्या है जीने की? ट्रस्ट कहां है जीने का? किसी परमात्मा में नहीं है।
आस्था इस आधार पर खड़ी है भीतर कि हम कितना ही मृत्यु कहे कि मरते हैं, भीतर कोई कहे ही चला जाता है कि मर कैसे सकते हैं? कोई आदमी अपनी मृत्यु को कंसीव नहीं कर सकता। उसकी धारणा नहीं बना सकता कि मैं मरूंगा। कैसी ही धारणा बनाए, वह पाएगाकि वह तो बचा हुआ है। अगर वह अपने को मरा हुआ भी कल्पना करे और देखे, तो भी पाएगा कि मैं देख रहा हूं, मैं बाहर खड़ा हूं।
मृत्यु के भीतर हम अपने को कभी नहीं रख पाते, सदा ही बाहर खड़े हो जाते हैं। मृत्यु के भीतर कल्पना में भी रखना असंभव है। सत्य मेंरखना तो बहुत मुश्किल है, हम कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसी जिसमें मैं मर गया। क्योंकि उस कल्पना में भी मैं बाहर खड़ा देखतारहूंगा। वह कल्पना करने वाला बाहर ही रह जाएगा, वह मर नहीं पाएगा।
यह जो भीतर का स्वर है वह उस सागर का स्वर है, जो कहता है: मौत कहां? मौत कभी जानी नहीं!
लेकिन फिर भी हम मौत से डरते हैं- यह हमारे शरीर का स्वर है।
और इन दोनों के बीच कनफ्यूजन है।(क्योंकि इस भीतर के स्वर को अहंकार के कारण जब व्यक्ति शरीर पर आरोपित कर देता है और उसे बचने की संभावना नज़र आने लगती है)
शरीर के पास कोई स्वर नहीं है अमृतत्व का। वह जानता है कि मैं मरूंगा।
शरीर जानता है कि वह बबूला है;
और हम जानते हैं कि हम बबूले नहीं हैं ।
जिस दिन हम समझते हैं कि हम बबूले हैं, हमारे जीवन का सारा उपद्रव शुरू हो जाता है।
वह जो शाश्वत है हमारे भीतर, जैसे ही लहर के साथ तादात्म्य कर लेता है वैसे ही कठिनाई में पड़ जाता है। इस तादात्म्य का नाम अज्ञानहै।
इस तादात्म्य के टूट जाने का नाम ज्ञान है।
(आत्मज्ञान प्राप्त होने पर) कुछ फर्क नहीं होता, सब चीजें फिर भी वैसी ही होती हैं।
शरीर अपनी जगह होता है, आत्मा अपनी जगह होती है। एक भ्रांति टूट गई होती है।
तब हम जानते हैं कि शरीर मरेगा, इससे हम भयभीत नहीं होते। क्योंकि इसमें भयभीत होने का उपाय नहीं है, शरीर मरेगा ही ।
भयभीत भी होने का वहां उपाय है जहां बचने की संभावना होती है। आप ऐसी स्थिति में कभी भयभीत नहीं होते, जहां बचने की संभावना ही नहीं होती।
(जैसे सैनिक भी घबराता है, जब युद्ध काल में उसकी पोस्टिंग सीमा पर कर दी जाती है, लेकिन एक बार जब वह उस जगह पहुँच जाता है जहां उसकी तैनाती है फिर सारा दर जैसे ग़ायब हो जाता है, क्योंकि अब बचने की कोई सम्भावना ही नहीं है)
बचने की संभावना से ही भय है।
(और हम जितना प्रयत्न करते हैं बचने का उतना ही हम उसमें फँसते चले जाते हैं, जैसे कोइ मकड़ी जाल बुनती हो)
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समय के साथ, 20 वर्षों के भीतर, मैं अन्य कृत्यों के दौरान होंश या जागरूकता को लागू करने में सक्षम हो गया, जबकि मुझे बाद में एहसास हुआ कि कई कृत्यों में यह उससे पहले ही स्वतः होने लगा था।
संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक प्राणी के रूप में जीना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना तीन महत्वपूर्ण उत्प्रेरक हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद करते हैं।
होंश का प्रयोग मेरे लिए काम करने का तरीका है, ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
ओशो इंटरनेशनल ऑनलाइन (ओआईओ) इन्हें आपके घर से सीखने की सुविधा प्रदान करता है,
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2. ओशो इवनिंग मीटिंग स्ट्रीमिंग है जिसे हर दिन स्थानीय समयानुसार शाम 6:40 बजे से एक्सेस किया जा सकताहै (जिनमें से ओशो कहते हैं कि वह चाहते हैं कि उनके लोग इसे पूरी दुनिया में देखें और इन दिनों यह संभव है) और16 ध्यान ज्यादातर वीडियो निर्देशों के साथ और Osho के iMeditate पर और भी बहुत कुछ।
3. जो लोग पहले इसे आजमाना चाहते हैं उनके लिए 7 दिनों का नि: शुल्क परीक्षण भी है।
यह इन संन्यासियों के माध्यम से ओशो को सीखने और जानने का एक अवसर है, जो उनकी उपस्थिति में रहते थे औरउनके शब्दों को सभी स्वरूपों में सर्वोत्तम संभव गुणवत्ता में जीवंत करते थे।
अंतिम क्षणों में यीशु के शिष्यों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया लेकिन ओशो के शिष्य तब तक उनके साथ रहे जब तक किउन्होंने काम करने के बाद स्वेच्छा से अपना शरीर नहीं छोड़ा, अंतिम दिन तक, हम सभी को प्रबुद्ध होने के लिए। यीशुने अपने शिष्यों को ध्यान सिखाने के लिए पकड़े जाने से पहले अंतिम समय तक कड़ी मेहनत की। सेंट जॉन गॉस्पेलके अनुसार: — यीशु ने अपनी ध्यान ऊर्जा को उनमें स्थानांतरित करने के लिए ‘सिट’ (Sit)शब्द का इस्तेमाल कियाऔर भगवान से प्रार्थना करने के लिए चले गए, लेकिन लौटने पर उन्होंने उन्हें सोते हुए पाया। उसने दो बार फिरकोशिश की लेकिन व्यर्थ।
आज भी ज़ेन (ZEN) लोग ध्यान के लिए ‘बैठो’ शब्द का प्रयोग अपने कथन में करते हैं ‘चुपचाप बैठो (Sit silently) कुछ न करो, मौसम आता है और घास अपने आप हरी हो जाती है’।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at http://philosia.in on May 29, 2023.