बोध-कथा — शंकराचार्य का संन्यास क्या संदेश देता है? | Philosia: The Art of seeing

Sandeep Kumar Verma
11 min readMay 15, 2024

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शंकराचार्य की भक्ति पर लिखी किताब भज गोविन्दम मुढ़मते पर संन्यासियों से चर्चा करते हुए ओशो के एक संन्यासी ने प्रश्न किया:-

(यूँ तो मैं 1981–83 से ओशो की किताबें पढ़ने लगा था और योगा, मैडिटेशन इत्यादि वग़ैरह करता था। 1999 में मेरे चचेरे बड़े भाई की मृत्यु ने मुझे कुछ इस प्रकार झकझोरा की उसके बाद सांसारिक जीवन जीते हुए संन्यासी का ही जीवन मैंने जिया। जैसे मुझे मौत तो उसी समय घट गई थी। ओशो की किताबों को पढ़कर उसमें सुझाये प्रयोग भी तब से करने लगा था। और एक दिन आख़िरी में दिया होंश का प्रयोग पढ़कर उसको प्रयोग किया तो बड़े आश्चर्यजनक परिमाण दिया तो वही सभी जगह प्रयोग करने लगा। कोई मुक्ति की कामना नहीं थी बस कुछ इतना करना था कि जीवन सार्थक हो जाये। और यह ज़रूर लगने लगा था कि यह जीवन तो फिर भी बड़े आराम से गुजर रहा है अगला जन्म शायद इतना भी नहीं करने को मिले तो पूरा झोंक दिया अपने आपको। इसलिए मेरे अनुभव से जहां आवश्यक लगा वहाँ कोष्ठक में मेरे अनुभव से मैं लिखता हूँ ताकि आपको पोस्ट अधिक स्पष्ट हो सके)

“शंकर जब छोटे थे, तब मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी। परंतु एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया। शंकर ने मरने से पहले मां से संन्यास लेने की अनुमति मांगी। अनुमति मिली और शंकर बच गए!

कृपया इस घटना पर कुछ प्रकाश डालें।”

ओशो :- घटना का कोई मूल्य नहीं है। घटना हुई भी हो, ऐसा जरूरी नहीं है।

लेकिन जो अर्थ है, वह समझने जैसा है।

और इसे सदा स्मरण रखना कि बुद्धपुरुषों के जीवन में जो घटनाएं हैं, वे घटनाएं कम हैं, प्रतीक ज्यादा हैं; उनमें छिपा कुछ राज है। वे ऐतिहासिक हों, न हों-आध्यात्मिक हैं।

जीसस ने बार-बार कहा है, जो मेरे साथ चलना चाहता हो उसे, अपनी मां को, अपने पिता को इनकार करना होगा; जो मेरे साथ चलना चाहता हो, उसे अपने परिवार का परित्याग करना होगा।

यदि तुम परिवार को न छोड़ सको, तो जीसस के परिवार के हिस्से नहीं बन सकते। संन्यास का अर्थ है कि यह जो जन्म और मृत्यु के बीच में घिरा हुआ जीवन है, यह व्यर्थ है। अगर जीवन ही व्यर्थ है, तो जिस मां ने जन्म दिया, वह तो व्यर्थ हो गई। उसने तो जीवन को जन्म दिया ही नहीं, एक सपने को विस्तार दिया।

तो संन्यास तो मूलतः जीवन से मुक्ति है। और जीवन की मुक्ति का अर्थ हुआ-मां से मुक्ति, पिता से मुक्ति, परिवार से मुक्ति, समाज से मुक्ति। यह सब व्यर्थ हुआ।

जब भी किसी संन्यास की आकांक्षा से भरे खोजी ने मां से आज्ञा मांगी, तभी मां को लगा-छोटा बच्चा, और ऐसे दूभर मार्ग पर जाना चाहता है! मां ने रोकना चाहा है।

‘शंकर छोटे थे, तभी मां ने उन्हें संन्यास लेने की अनुमति न दी। परंतु एक दिन नदी में स्नान करते समय शंकर को मगरमच्छ ने पकड़ लिया।’

लेकिन जीवन की नदी में आज नहीं कल, दुख पकड़ता है। जीवन की नदी में ही मिलन होता है मृत्यु से भी। तुम कोई मृत्यु को मिलने नहीं जाते हो नदी। तुम तो स्नान करने गए थे; तुम तो तैरने का सुख लेने गए थे; तुम तो सुबह की ताजगी लूटने गए थे।

कोई संसार में मरने को थोड़े ही जाता है?

कोई जीवन की धार में मगरमच्छों से मिलने थोड़े ही जाता है?

जाता तो सुख की तलाश में है; खजानों की खोज में है; सफलता, यश, प्रतिष्ठा, महिमा के लिए है। लेकिन पकड़ा जाता है मगरमच्छों से। आज नहीं कल, मौत पकड़ती है।

और जितना बोधवान व्यक्ति होगा, उतने जल्दी यह स्मरण आता है कि यह नदी तो ऊपर-ऊपर है, भीतर मौत छिपी है। मगरमच्छ यानी भीतर छिपी मौत।

ऊपर से जल की ऐसी पवित्र धार मालूम होती है, भीतर मौत प्रतीक्षा कर रही है। ऊपर से कितना लुभावना लगता है और नदी कैसी भोली-भाली लगती है।

और भीतर मौत दांव लगाए बैठी है!

जो जितना होशियार है, जितना बुद्धिमान है, जितना चैतन्यपूर्ण है, उतने जल्दी ही दिखाई पड़ जाएगा। शंकर को बहुत जल्दी दिखाई पड़ गया।

तुम्हें अगर देर तक दिखाई न पड़े, तो समझना कि बुद्धिमत्ता क्षीण है, बहुत बोध नहीं है; मिट्टी की पर्तें जमी हैं तुम्हारे दर्पण पर और तुम्हारी बुद्धि धुएं से भरी है। अन्यथा जल्दी ही दिख जाएगा।

शंकर को दिख गया कि इस जीवन में तो मौत के सिवाय कुछ मिलेगा नहीं। इतनी ही बात है कथा में।

और जब तक मौत ही स्पष्ट न हो जाए, तब तक ममता से छुटकारा नहीं होता, तब तक मां से छुटकारा नहीं है। इसे थोड़ा समझो।

एक तरफ मां है, मां यानी जन्म; दूसरी तरफ मौत है, मौन यानी अंत। अगर मौत दिख जाए तो ही मां से छुटकारा है; अंत दिख जाए तो ही जन्म व्यर्थ होता है।

तो संन्यास का अर्थ है-मौत का दर्शन, मृत्यु की प्रतीति। संसार में तो हम मौत को टाले जाते हैं। हम कहे चले जाते हैं, सदा दूसरा मरता है, मैं तो कभी मरता नहीं।

संन्यास का अर्थ है, इस बोध का जग जाना कि मृत्यु मेरी है। और कोई भी मरता हो, हर बार जब कोई मरता है तो मेरे ही मरने की खबर बार-बार आती है। हर एक की मृत्यु में मेरी ही मृत्यु की सूचना है, इंगित है, इशारा है। और हर एक की मौत में थोड़ा मैं मरता हूं। अगर तुम्हें समझ हो, तो हर एक की मौत तुम्हारी मौत हो जाएगी।

शंकर को दिखाई पड़ा कि मौत है।

मौत के दिखाई पड़ते ही मां से छुटकारा हो जाता है। क्योंकि मां यानी जीवन, मां यानी जिसने उतारा। मौत यानी जो ले जाएगी।

इसलिए हिंदुओं ने एक बड़ी अनूठी कल्पना की है। हिंदुओं से ज्यादा कल्पनाशील, काव्यात्मक कोई जाति पृथ्वी पर नहीं है। उनके काव्य बड़े गहरे हैं।

तुमने कभी देखी काली की प्रतिमा?

वह मां भी है और मौत भी। काल मृत्यु का नाम है, इसलिए काली; और मां भी है, इसलिए नारी। सुंदर है, मां जैसी सुंदर है। मां जैसा सुंदर तो फिर कोई भी नहीं हो सकता। अपनी तो मां कुरूप भी हो तो भी सुंदर मालूम होती है। मां के संबंध में तो कोई सौंदर्य का विचार ही नहीं करता। मां तो सुंदर होती ही है। क्योंकि अपनी मां को कुरूप देखने का अर्थ तो अपने को ही कुरूप देखना होगा, क्योंकि तुम उसी के विस्तार हो।

तो काली सुंदर है, सुंदरतम है। लेकिन फिर भी गले में नरमुंडों की माला है! सुंदर है, पर काली है-काल, मौत!

पश्चिम के विचारक जब इस प्रतीक पर सोचते हैं, तो वे बड़े चकित होते हैं कि स्त्री को इतना विकराल क्यों चित्रित किया है! और तुम उसे मां भी कहते हो! और इतना विकराल!

इतना विकराल इसलिए कि जिससे जन्म मिला है, उसी से मृत्यु की शुरुआत भी हुई। विकराल इसलिए कि जन्म के साथ ही मौत भी आ गई है। तो मां ने जन्म ही नहीं दिया, मौत भी दी है।

तो एक तरफ वह सुंदर है मां की तरह, स्रोत की तरह। और एक तरफ अंत की तरह, काल की तरह अत्यंत काली है। गले में नरमुंडों की माला है, हाथ में कटा हुआ सिर है, खून टपक रहा है, पैरों के नीचे अपने ही पति को दबाए खड़ी है।

स्त्री के ये दो रूप-कि वह जीवन भी है और मृत्यु भी-बड़ा गहरा प्रतीक है। क्योंकि जहां से जीवन आएगा, वहीं से मृत्यु भी आएगी; वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जैसा हिंदुओं ने इस बात को पहचाना, पृथ्वी पर कोई भी नहीं पहचान सका।

जब मौत दिख गई, तभी संन्यास घट गया। जब मौत दिख गई, तो फिर संन्यास बच ही नहीं सकता। फिर तुम जैसे हो, जहां हो, वहीं ठगे खड़े रह जाओगे।

फिर जीवन वही नहीं हो सकता, जो इसके क्षण भर पहले तक था। वह पुरानी दौड़, वह महत्वाकांक्षा, वह यश, कीर्ति का नशा-वह सब टूट गया, मौत सब गिरा देगी।

मरना है, फिर कितनी देर बाद मरना है, इससे क्या फर्क पड़ता है!

आज कि कल कि परसों-यह तो समय का हिसाब है। अगर मौत होनी है तो हो गई, अभी हो गई। और उस मौत का तीर इस तरह चुभ जाएगा कि फिर तुम वही न हो सकोगे, जो अब तक थे। यह जो नये का होना है, उसी का नाम संन्यास है।

अगर तुम मुझसे पूछो कि संन्यास की क्या परिभाषा है?

तो मैं कहूंगा: संन्यास वैसे जीवन की दशा है, जब बाहर तो मौत नहीं घटी, लेकिन भीतर घट गई। जीते हो, लेकिन मौत को जानते हुए जीते हो। यही संन्यास है।

जीते हो, लेकिन मौत को भूलते नहीं क्षण भर को। यही संन्यास है।

जानते हो कि क्षण भर के लिए टिकी है ओस-अभी गिरी, अभी गिरी। जगत तरैया भोर की-अभी डूबी, अभी डूबी। जीते हो, लेकिन जीने के नशे में नहीं डूबते। जीने का नशा अब तुम्हें डुबा नहीं सकता।

जागे रहते हो, होश बना रहता है। मौत जगाती है। जो जाग गया, वही संन्यासी है। जो जीवन में खोया है और सपनों को सच मान रहा है, वही गृहस्थ है।

जिसे हम बस्ती कहते हैं, वह बस मरघट है, प्रतीक्षा करने वालों का क्यू है। किसी का वक्त आ गया, कोई क्यू में थोड़ा पीछे खड़ा है। क्यू सरक रहा है, मरघट की तरफ जा रहा है। जिसको यह दिखाई पड़ गया, उसके जीवन से आसक्ति खो जाती है। वही आसक्ति का खो जाना संन्यास है।

संन्यास विरक्ति की चेष्टा नहीं है, संन्यास विरक्ति का अनुशासन नहीं है, संन्यास आसक्ति का टूट जाना है। बस जहां आसक्ति खो गई। अनासक्ति का साधना संन्यास नहीं है, ध्यान रखना। क्योंकि आसक्ति न टूटी हो तो ही अनासक्ति साधनी पड़ती है।

आसक्ति टूट गई हो तो अनासक्ति साधनी नहीं पड़ती। आसक्ति की जगह जो खाली जगह छूट जाती है, वही अनासक्ति है; वह अभाव है। तब तुम संन्यस्त हो।

इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं, संन्यास के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं। तुम जहां हो, वहीं थोड़ा होश आ जाए; बस थोड़ा दीया जल जाए भीतर का; चीजें जैसी हैं, वैसी दिखाई पड़ने लगें-नशे की आंख से नहीं, खुली आंख से।

जिंदगी में जैसे तुम चल रहे हो-नशे में हो, सपनों का गीत गुनगुना रहे हो-चीजें जैसी हैं, वैसी दिखाई नहीं पड़तीं। धक्का लगना चाहिए, एक कड़कड़ाती आवाज आनी चाहिए, चोट कि सब बिखर जाए, एक क्षण को उस चोट में बादल छितर-बितर हो जाएं और तुम्हें खाली आकाश दिखाई पड़े। तब तुम सिवाय मौत से घिरे हुए अपने को और कुछ न पाओगे। जिसको तुमने जिंदगी जाना, वह मौत का चेहरा है।

मरे बेटे में और संन्यासी बेटे में चुनने का सवाल हो, तो ही मां संन्यासी बेटे को चुनेगी-इतना ही अर्थ है। क्योंकि संन्यासी बेटा मरा हुआ बेटा है।

संन्यास का अर्थ है: आदमी जीते जी मर गया।

जीसस ने कहा है: जब तक तुम अपनी सूली को अपने कंधे पर ढोने को राजी न होओ, मेरे साथ न चल सकोगे; जब तक तुम अपने को ही इनकार करने को राजी न होओ, मेरे साथ न चल सकोगे; जब तक तुम मरने को राजी नहीं हो, तब तक पुनरुज्जीवन का कोई उपाय नहीं है।

कहते हैं, शंकर बच गए।

मगरमच्छ ने देखा कि अब संन्यासी हो गया, अब क्या मारना!

नहीं, मगरमच्छ इतने बुद्धिमान नहीं।

(मनुष्य होकर) हिटलर-मुसोलिनी (इतने बुद्धिमान) नहीं हैं, तो मगरमच्छों की क्या बात करनी!

नहीं लेकिन, प्रतीक बड़ा बहुमूल्य है: व्यक्ति बचता तभी है जब संन्यस्त हो जाता है, फिर मौत भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती।

मरता वही है, जो जीवन को पकड़ता है; जो जीवन को अपने हाथ ही छोड़ देता है, उसे मौत भी कैसे मार पाएगी?

जो देने को ही राजी हो गया है, उससे छीनोगे कैसे?

जो बचाना चाहता है, उससे ही छीना जा सकता है। इसलिए जीसस कहते हैं: जो बचाएगा, वह खो देगा; जो खोने को राजी है, उसने बचा लिया।

इस सार की बात को समझ लेना-शंकर बच गए।

मगरमच्छ ने छोड़ा?

नहीं, इतनी ही खबर है कि मौत संन्यासी को नहीं मार पाती। संन्यासी को मारने का उपाय नहीं है। क्योंकि संन्यासी कहता है: मैं-जिसे तुम मार सकते थे, छोड़ ही दिया उसे।

उस अहंकार को, उस आकांक्षा-अभीप्सा के जाल को, उस सपनों के फैलाव को छोड़ ही दिया मैंने। मैं खुद ही मर गया हूं अपने हाथ से।

तब भीतर जो अमृत बचा है-जो घिरा था मृत्यु से-वही शुद्ध होकर बचता है ।

जब तक तुम जीवन को पकड़ रहे हो, तब तक तुम्हें अपने अमृत की कोई खबर नहीं है। इसीलिए तो जीवन को इतनी जोर से पकड़े हो कि कहीं छूट न जाए; डर है कि कहीं मर न जाओ। फिर भी डर तो लगा ही रहता है।

अमृत भी तुम्हारे भीतर छिपा है, मौत भी तुम्हारे भीतर छिपी है।

और जब तक तुम जीवन को बाहर पकड़ोगे, तब तक तुम्हें भीतर की सिर्फ मौत दिखाई पड़ेगी; जिस दिन तुम भीतर की मौत को स्वीकार कर लोगे, उसी क्षण तुम्हें भीतर के जीवन के दर्शन शुरू हो जाएंगे।

ध्यान रहे, जैसे काले तख्ते पर हम सफेद खड़िया से लिखते हैं और अक्षर साफ दिखाई पड़ते हैं। अगर हम सफेद दीवाल पर लिखें तो नहीं दिखाई पड़ते।

अगर तुमने भीतर की मौत को स्वीकार कर लिया, तो उस कालिमा में ही, वह जो अमृत का छोटा सा दीया तुम्हारे भीतर जल रहा है, वह हजार गुनी रोशनी में चमकने लगेगा।

लेकिन तुम मौत को स्वीकार नहीं करते, तुम काले तख्ते को स्वीकार नहीं करते, इसलिए सफेद अक्षर दिखाई नहीं पड़ते। तुम काले तख्ते को देखने से डरते हो, इसलिए सफेद अक्षर दिखाई नहीं पड़ते। इस विरोधाभासी वक्तव्य को हृदय में सम्हाल कर रख लेना। जिसने भी मौत को भर आंख देखा, उसे अमृत दिखाई पड़ गया।

‘शंकर बच गए।’ क्योंकि मौत तुम्हें मिटा ही नहीं सकती।

तुम जिसे जीवन कहते हो, उसे मिटा सकती है। तुम जिसे शरीर कहते हो, उसे मिटा सकती है। तुम जिसे नाम-रूप कहते हो, उसे मिटा सकती है।

तुम्हें मिटाने का मौत के पास कोई उपाय नहीं; तुम अमृत-पुत्र हो!

तुम न कभी मिटे, न कभी मिटाए जा सकते हो। न तुम कभी पैदा हुए और न तुम कभी मरोगे।

जो पैदा हुआ है, वह मरेगा। तुम्हारी देह पैदा हुई है, वह गुजरेगी। तुम्हारा नाम, तुम्हारा व्यक्तित्व पैदा हुआ है, वह मरेगा।

लेकिन तुम नाम-रूप से अतीत सदा काल में थे, सदा काल में रहोगे। तुम सनातन हो, तुम शाश्वत हो। संन्यास का इतना ही अर्थ है कि जो मिटेगा, हम उसे स्वयं छोड़ देते हैं; और उस खोज में निकलते हैं जो नहीं मिटेगा।

क्षणभंगुर को छोड़ते हैं, शाश्वत की तरफ आंख उठाते हैं। अगर स्वयं का भी मिटना इसमें हो जाए, तो भी स्वीकार है; क्योंकि जो क्षणभंगुर है, उसे बचा कर भी कौन बचा पाया है, जाने ही दो।

अगर जाने के बाद कुछ बच जाएगा-इस कूड़े-करकट के जाने के बाद अगर कुछ बच रहेगा-जिसको त्याग कर भी त्यागा न जा सके, छोड़ कर भी छोड़ा न जा सके; नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि-जिसे शस्त्र छेदें और छेद न पाएं; जिसे आग जलाए और जला न पाए-अगर कुछ ऐसा बचेगा-सब जलाने के बाद, सब शस्त्रों के छिद जाने के बाद, तो बस वही बचाने योग्य था।

संन्यास उसकी ही खोज है।

-ओशो, भजगोविन्दम मुढ़मते, #8 संसार एक पाठशाला, कॉपीराइट ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:-

सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।

मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

Originally published at https://philosia.in on May 15, 2024.

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Sandeep Kumar Verma
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Written by Sandeep Kumar Verma

Spiritual seeker conveying own experiences. Ego is only an absence, like darkness, bring in the lamp_awareness&BeA.LightUntoYourself. https://linktr.ee/Joshuto

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