महावीर पर ओशो : पहले सम्यक् दर्शन, फिर ज्ञान अंत में आचरण | Philosia: The Art of seeing
महावीर के जैन दर्शन पर ओशो ने 08 -10 सितंबर 1964 को बॉम्बे (अब मुंबई) के अलंकार थियेटर में आयोजित एक सभा में अपने व्याख्यान दिये जिसमें पहला व्याख्यान उनकी नज़र में सही मायने में जैन दर्शन क्या है इस पर था। मेरे विचार से उनके इस सुझाव को सिरे से नकार दिया गया, इसलिए उन्होंने ख़ुद ही अपने तरीक़े से जैन दर्शन का प्रचार पूरे विश्व में किया। इस तरह मेरी नज़र में आज ओशो के सारे संन्यासी महावीर के भी अनुयायी हैं। महावीर के जिन दर्शन को अंततः पूरे विश्व ने उचित सम्मान ओशो के माध्यम से मिला। ओशो के दृष्टिकोण महावीर वाणी पर ऐसा एक पोस्ट मैंने और लिखा है,श्रावक या साधक लिंक पर क्लिक करके उसे भी पढ़ सकते हैं।
आज के युग में मंदिर कम नहीं हैं, मूर्तियां कम नही हैं, सिद्धांत कम नहीं हैं, धार्मिक ग्रंथ कम नहीं हैं, लेकिन प्यास विलीन हो गई है। प्यास क्षीण हो गई है।
प्यास इतनी मद्धिम हो गई है कि अगर अपने से पूछें शांति में बैठ कर: सच, मोक्ष चाहता हूं?
सच जाना चाहता हूं पहाड़ों पर?
भीतर कोई आवाज उठती हुई मालूम न होगी। भीतर कोई कंपन होता हुआ मालूम न होगा। भीतर कोई स्वर उठता हुआ, कोई उत्तर आता हुआ मालूम न होगा। भीतर एक सन्नाटा, एक मुर्दगी, एक अवसाद छाया हुआ दिखेगा।
ऐसे इस अवसाद में, इस तृप्ति की भ्रांत धारणा में, इस असंतुष्ट होने की कमी में कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता।
धार्मिक (होने) के लिए (ज्ञान का) असंतोष चाहिए। (अपने अज्ञान की स्थिति पर असंतोष होना चाहिए)
साधारणतया धार्मिक उपदेशक कहते हैं: संतुष्ट हो जाओ। जो है, संतुष्ट हो जाओ।
मैं कहता हूं कि बात उनकी गलत है।
जो भी है, सबसे असंतुष्ट होना होगा। जो भी है, सबसे अतृप्त होना होगा-जो भी है!
किसी से भी जो तृप्त हो जाएगा, वह नीचे रह जाएगा। तृप्ति मृत्यु है। संतुष्ट हो जाना, मर जाना है। क्षुद्र से हम घिरे हैं, व्यर्थ से हम घिरे हैं, सीमित से हम घिरे हैं, उससे जो संतुष्ट हो गया वह आत्मघात कर लिया, सुसाइड, आत्महत्या।
…मैं यह नहीं कहता।
मैं कहता हूं: असंतुष्ट होने को।
देखें चारों तरफ, जो हमारे चारों तरफ घिरा है वह संतुष्ट होने जैसा है?
फिर हमारा मन उससे संतुष्ट नहीं होता तो हम मन को दोष देते हैं कि मन बड़ा चंचल है, किसी चीज से संतुष्ट नहीं होता।
मैं आपसे कहूं: सौभाग्य है आपका कि मन चंचल है।
फिर से दोहराता हूं: सौभाग्य है आपका कि मन चंचल है।
अगर मन चंचल न हो तो हम किस कूड़े पर, किस कचरे पर उसे बिठा कर नष्ट कर देंगे पता नहीं।
अगर मन चंचल न हो और थिर हो जाए हमारे मानने से, तो हम उसे कहां बिठा देते, एक दफा विचार करना?
हमने उसे कहां बिठा दिया होता?
मन कहीं तृप्त नहीं होता-पूरे जीवन दौड़ो। पूरे जीवन दौड़ो, एक-एक वासना के द्वार खटखटाओ, एक-एक इच्छा को तृप्त करने की चेष्टा करो, मन कहीं नहीं ठहरता, इसके पहले कि तुम पहुंचो वहां से भाग जाता है।
कुछ लोग हैं जो इस बात को गाली देते हैं कि मन बड़ा चंचल है। और मैं कहता हूं: यह सौभाग्य है। धन्य हैं वे जिनका मन चंचल है।
और मन की चंचलता इसलिए है कि मन बिना परम को पाए रुकेगा नहीं। मन बिना प्रभु को पाए रुकेगा नहीं, इसलिए चंचल है।
मन इसलिए भागा हुआ है कि क्षुद्र से तृप्त नहीं हो सकता। दिव्य चाहिए, डिवाइन, भागवत। उसको पाने के पूर्व उसकी चंचलता नहीं मिटेगी।
(यह बहुत ध्यान देने वाली बात ओशो कहते हैं) मन की चचंलता छोड़ कर भगवान को नहीं पाना होता; भगवान को पाते ही मन की चंचलता विलीन हो जाती है।
उस परम पद को पा सकें हम, इसलिए मन चंचल है निरंतर।
मिश्र में एक साधु हुआ, फकीर था। मिश्र का जो बादशाह था उससे मिलने आया। फकीर की प्रशंसा सुनी थी। मिलने गया। गरीब था फकीर।
उसका एक साधु बाहर खेत में काम कर रहा था, बादशाह ने पूछा कि फकीर कहां है?
उसने कहा: आप बैठें दो क्षण, मैं उन्हें बुला लाता हूं।
लेकिन बादशाह बैठा नहीं, वह खेत की मेड़ पर टहलने लगा। साधु भीतर गया, बादशाह से कहा: भीतर आ जाएं।
उसने सोचा, शायद खेत में कहां बैठें, इसलिए टहलते होंगे।
बादशाह भीतर गया। गंदा सा झोपड़ा था। गरीब का झोपड़ा था।
उस साधु ने कहा: बैठ जाएं, मैं पीछे के खेत से बुला लाऊं जिनसे आप मिलने को आए हैं।
बादशाह बरामदे में टहलने लगा।
वह बड़ा हैरान हुआ कि यह आदमी बैठता क्यों नहीं है?
खेत पर से जाकर फकीर को बुला कर लाया और फकीर को उसने रास्ते में कहा: अजीब आदमी मालूम होता है यह बादशाह, मैंने दो-चार बार कहा कि बैठ जाएं, लेकिन वह टहलता है, बैठता नहीं!
वह फकीर हसंने लगा, वह बोला: उस बादशाह को बिठाने योग्य हमारे पास सिंहासन कहां है, उस बादशाह को बिठा सकें इस योग्य हमारे पास जगह कहां है, इसलिए टहलता है।
मैंने जब इसे पढ़ा, जैसे एक उदघाटन हो जाए, एक द्वार खुल जाए-मेरे सामने एक द्वार खुल गया।
मनुष्य का यह जो मन है, यह परम पद के पहले कहीं नहीं बैठेगा, इसके बैठने योग्य और कोई स्थान नहीं है। और यह नहीं बैठता, इसकी कृपा और अनुग्रह है।
मन की चंचलता ही व्यक्ति को संसार से मोक्ष तक ले जाने का कारण बनती है। मन की चंचलता ही व्यक्ति को संसार से तृप्त नहीं होने देती।
मन सहयोगी है, विरोधी नहीं। मन साथी है, शत्रु नहीं। मन ही ले जाता है-मन ही संसार में लाया, मन ही संसार के पार ले जाता है। मन ही यहां लाता है, मन ही वापस ले जाता है। जो रास्ता यहां तक लाता है, वही रास्ता तो पीछे वापस ले जाएगा।
लेकिन स्मरणीय यह नहीं है कि मन बुरा है, स्मरणीय यह है कि मन कि दिशा क्या है?
मन ही प्रभु तक ले जाएगा, मन ही संसार तक।
मन की दिशा क्या है?
मन अगर संसार की तरफ मुड़ा हुआ है, हम संसार में गति करेंगे। मन अगर प्रभु की तरफ मुड़ा है, हम प्रभु में गति करेंगे। मन गतिमयता का सिद्धांत है।
मन के असंतोष को संसार की तरफ से हटा लें, मन के असंतोष को प्रभु की तरफ लगने दें, मन की अतृप्ति को प्रभु की तरफ दौड़ने दें-रास्ते पर पीछे लौटना है।
और मैंने अनुभव किया कि महावीर की जीवन-दृष्टि बहुत सरलता से व्यक्ति को पीछे लौटा सकती है।
पर हम उसे भ्रांत समझे हैं और गलत समझे हैं।
हमने महावीर की पूरी जीवन-दृष्टि को गलत समझा है।
हमने समझ लिया कि महावीर एक विरागी हैं। हमने समझ लिया कि वह एक त्यागी संन्यासी हैं। और हमने महावीर के साथ गलती कर ली।
विराग भी संसार में है, राग भी संसार में है-दोनों संसारी हैं। गृहस्थ भी संसारी है, संन्यस्त भी संसारी है-दोनों संसार के भीतर हैं।
एक संसार के पीछे दौड़ रहा है संसार को पकड़ने को, एक संसार से दौड़ रहा है संसार को छोड़ने को, लेकिन दोनों का केंद्र संसार है, दोनों की पकड़ संसार पर है।
महावीर का दर्शन न राग का दर्शन है, न विराग का-वह वीतरागता का दर्शन है।
जो राग के और विराग के ऊपर उठ जाए।
राग छूटे और विराग पकड़ ले-व्यर्थ हो गया छूटना। एक छूटा, दूसरा पकड़ गया। महावीर छोड़ने-पकड़ने को उत्सुक नहीं हैं।
महावीर इस सत्य का दर्शन कराना चाहते हैं कि तुम्हारी सत्ता छोड़ने-पकड़ने के बाहर है।
महावीर को विरागी न समझें, महावीर की साधना को विराग की साधना न समझें।
जैन-साधना विराग की नहीं; ज्ञान की साधना है।
जैन-साधना त्याग की नहीं; ज्ञान की साधना है। त्याग ज्ञान से अपने आप फलित होता है।
जो राग को सीधा छोड़ कर विराग की तरफ चलेगा, विराग उसे जकड़ लेगा।
जो राग के प्रति ज्ञानयुक्त होकर होश से भरेगा, जो राग की परिपूर्ण सत्ता के प्रति जागरूक होगा, विराग नहीं पकड़ेगा-राग-विराग दोनों विसर्जित हो जाएंगे।
जैन दृष्टि वास्तविक संन्यास को ज्ञानजन्य मानती है। (त्याग जन्य नहीं जैसा कि जैन धर्म आज हो गया है)
राग के विपरीत विराग नहीं पैदा करना है।
ज्ञान के प्रकाश में राग को विसर्जित कर देना है-विराग भी विसर्जित हो जाएगा। (वीतरागी हो जाना है)
ये दोनों बातें बहुत भिन्न हैं।
राग से डर कर विराग की तरफ भागना अज्ञान है।
जो मुझे बांधे ही नहीं है उसे छोड़ कर भागना पागलपन है।
जो है ही नहीं उससे भागूंगा कैसे?
महावीर कहते हैं: इस सत्य को जान लो कि पदार्थ अपने स्वरूप में चल रहा है, तुम अपने स्वरूप में-तुम उससे संबंधित ही नहीं हो।
राग भी संबंध है, विराग भी संबंध है।
तुम उससे असंग हो, असंबंधित, इस सत्य का उदघाटन संन्यास होगा।
इस सत्य का उदघाटन जो करे, वह महावीर के अनुगमन में है, वह उनके पीछे चल रहा है।
मैं आपको कहूं: आत्म-ज्ञान की साधना विराग की साधना नहीं है। आत्म-ज्ञान की साधना त्याग की साधना नहीं है। त्याग तो अपने से फलित होगा, अपने से घटित होगा।
जैसे ही ज्ञान का जन्म होगा, आचरण में त्याग अपने आप चला आता है।
जगत में प्रभु को पाने की दो निष्ठाएं हैं: एक निष्ठा है कर्म की, एक निष्ठा है ज्ञान की। जैन निष्ठा ज्ञान की निष्ठा है।
जैन निष्ठा ज्ञान के माध्यम से प्रभु को पाने की आस्था है, कर्म के माध्यम से नहीं।
जैन विश्लेषण अदभुत है। वह कहता है: प्रत्येक कर्म बांध देता है। प्रत्येक कर्म का परिणाम बांध लेगा। अशुभ कर्म बांधते हैं, शुभ कर्म बांध लेते हैं।
और जब तक बंधन है-चाहे लोहे का हो और चाहे स्वर्ण का; (उस व्यक्ति को) आत्म-ज्ञान उपलब्ध नहीं हुआ है।
जैन-साधना कर्म की नहीं; अकर्म की, या ज्ञान की साधना है।
केवल ज्ञान मुक्त करता है, कर्म नहीं।
इस सत्य को जानना है कि मुझे कर्म छूते ही नहीं हैं-और समस्त कर्मों की निर्जरा हो जाती है। क्योंकि वस्तुतः उन्होंने कभी बांधा नहीं था, मैं केवल भ्रम में था कि बंधा हूं।
भ्रम का विसर्जन होना है, कर्मों का कोई विसर्जन नहीं होना है।
वे बांध ही नहीं सकते। नित्य बुद्ध, नित्य मुक्त चैतन्य भीतर बैठा है। इसकी घोषणा जिन्होंने की है-जाग्रत पुरुषों ने की है।
जाग्रत पुरुषों की घोषणा है: भीतर मुक्त बैठा है, तुम भ्रांति से उसे अमुक्त और बंधन में मान रहे हो। इसलिए मोक्ष का प्रयास भी अज्ञान है। मुक्त होने का प्रयास भी अज्ञान है।
क्योंकि जो बंधा ही नहीं, उसे मुक्त करने को क्या करोगे?
केवल सत्य को जानना है, सत्य के प्रति जाग्रत होना है, शेष अपने से हो जाएगा। यह ज्ञान की निष्ठा है। ज्ञान ही क्रांति है, ज्ञान ही ट्रांसफार्मेशन है। अज्ञान संसार है, ज्ञान मोक्ष है। इस ज्ञान को उपलब्ध होना है।
यह ज्ञान प्रत्येक के भीतर है। आंख बाहर है, ज्ञान भीतर है। दोनों को संयुक्त कर लेना परिवर्तन हो जाता है।
मैं निरंतर बाहर देख रहा हूं। मैं निरंतर बाहर देख रहा हूं-हर क्रिया बाहर हो रही है, हर ज्ञान का उपयोग बाहर हो रहा है, हर चिंतन बाहर हो रहा है। चौबीस घंटे मैं बाहर हूं, भीतर नहीं।
(हम सब )लगभग एक सिनेमागृह में बैठे हैं, जहां आंख के सामने फिल्में गुजर रही हैं, और इतने तल्लीन हो गए हैं उस सिनेमा को देखने में कि भूल गए हैं कि मेरी भी कोई सत्ता है। देखने वाला दृश्य में अपने को खो दिया है। देखने वाला दृश्य में विलीन हो गया है, तल्लीन हो गया है।
केवल तल्लीनता तोड़ देनी है और द्रष्टा दिख जाएगा। केवल तल्लीनता तोड़ देनी है और द्रष्टा दिख जाएगा!
दुनिया के कुछ विचारक हुए हैं, जो कहते हैं, और तल्लीन हो जाएं, तल्लीनता से भगवान मिलेगा।
जैनों की वैसी आस्था नहीं है। जैन कहते हैं: तल्लीन हुआ जाता है ‘पर’ में। सब तल्लीनता ‘पर’ से संबंधित हैं-चाहे संसार की हो, चाहे भगवान की मूर्ति में तल्लीनता कर रहे हों।
जैन-साधना तल्लीनता की नहीं; जागरूकता की साधना है।
तल्लीन नहीं होना है, तल्लीनता तो मूर्च्छा है। तल्लीनता तो अपने को भुला देना है, खो देना है, बेखुदी है, नशा है। तल्लीनता नहीं; जागरण, जागना है।
सारी तल्लीनता छोड़ देनी है और होश से भर जाना है।
होश से भरते ही द्वार खुल जाएगा।
अगर ठीक से कहूं: तल्लीनता संसार है। कहीं न कहीं तल्लीन हैं-राग में तल्लीन हैं, वासनाओं में तल्लीन हैं। कुछ हैं जो भगवान में तल्लीन हैं। कुछ हैं जो नाच कर, गीत गाकर भगवान में अपने को भुला रहे हैं।
भगवान में अपने को भुलाना नहीं है। किसी भी सत्ता में अपने को भुलाना अज्ञान है। समस्त के बीच अपने को जगाना है।
जैन-साधना में तल्लीनता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, रंचमात्र। समस्त तल्लीनता तोड़ देनी है। तल्लीनता से ही हम बाहर के दृश्यों से बंधे हैं। कभी तल्लीन हो जाते हैं रागों में, कभी तल्लीन हो जाते हैं प्रभु की कल्पना में।
महावीर का शिष्य था, गौतम। अंत तक महावीर की मृत्यु तक, महावीर के निर्वाण तक वह मुक्त नहीं हुआ। और बाद में आए हुए मुक्त हो गए थे, गौतम मुक्त नहीं था।
महावीर ने अनेक बार कहा: तू मेरे प्रति अपना मोह छोड़, मेरे प्रति तेरा मोह तुझे बाधा बन रहा है। महावीर के प्रति गौतम की तल्लीनता उसकी मुक्ति में बाधा हो रही थी।
महावीर के प्रति तल्लीनता, महावीर के प्रति घनी श्रद्धा बाधा हो रही थी। महावीर के प्रति अनन्य समर्पण बाधा हो रहा था। महावीर के शरण में होने की अत्यंत आसक्ति बाधा हो रही थी। आखिर महावीर का तो निर्वाण भी हो गया। गौतम अमुक्त था, अमुक्त ही था।
एक गांव में भिक्षा मांगने गया था। राह में खबर मिली कि महावीर का परिनिर्वाण हो गया है। रोने लगा।
राहगीरों से कहा: मेरा क्या होगा?
मैं तो अमुक्त ही हूं। इतने दिनों से मेहनत करके भी पा नहीं सका अभी। राहगीरों ने कहा कि तुम्हारे संबंध में निर्वाण के पूर्व उन्होंने दो शब्द कहलवाए हैं। और वे शब्द हृदय में लिख लेने जैसे हैं। उन दो शब्दों में महावीर का पूरा दर्शन जगत के अन्य साधकों और चिंतकों से भिन्न हो जाता है। बहुत क्रांतिकारी हो जाता है।
महावीर ने कहलवाया: ‘कह देना गौतम से कि तू सारी नदी तो पार कर गया है, अब किनारे को पकड़ कर क्यों रुक गया, उसको भी छोड़ दे।’
तू सारा संसार का मोह छोड़ चुका, अब महावीर के प्रति क्यों मोह (तल्लीनता)पकड़े हुए है, उसको भी छोड़ दे। वह तल्लीनता भी विसर्जित हो जाए, तो आत्म-जागरण हो जाता है।
तल्लीन होकर खो गए हैं। तल्लीनता छिन्न-भिन्न कर देनी है, तोड़ देनी है। तल्लीनता के कारण दृश्य सब-कुछ हो गया है, द्रष्टा विस्मृत हो गया है।
चौबीस घंटे दृश्य में खोए हुए हैं, देख रहे हैं। एक दृश्य हटता है, दूसरा आ जाता है; दूसरा हटता है, तीसरा आ जाता है।
इतने तल्लीन हैं कि याद ही नहीं पड़ता कि हमारा भी कोई होना है, हमारा भी कोई बीइंग है, जो हम देख रहे हैं उसके अतिरिक्त मैं भी कोई देखने वाला हूं।
कैसे यह तल्लीनता टूटे?
आत्म-जागरण, आत्म-द्रष्टा कैसे बनें?
एक-एक इंच साधना करनी होगी। एक-एक इंच जागना होगा। एक-एक इंच विवेक पैदा करना होगा। एक-एक दृश्य जब भीतर उठे… तो इस विज्ञान को समझना होगा, विवेक को पैदा करना होगा कि यह जो मैं देख रहा हूं, यह मैं नहीं हूं। मैं केवल द्रष्टा हूं।
जो भी दिखाई पड़ रहा है, वह मैं नहीं हूं। जो देख रहा है, वह मैं हूं।
प्रत्येक विचार के साथ, प्रत्येक दृश्य के साथ जो प्रवाह है, उसमें द्रष्टा के बोध को जगाना होगा। इसको महावीर ने विवेक कहा है। इसको महावीर ने कहा है साधना। इसको महावीर ने कहा है शुद्ध चैतन्य का स्मरण।
धीरे-धीरे इस होश को पैदा करते हुए एक-एक चीज जो ‘पर’ है, दिखाई पड़ने लगेगी, अलग। समस्त क्रियाओं के बीच, वह जो क्रियाशून्य है, उसका अनुभव होना शुरू होगा।
समस्त क्रियाओं और गति के बीच, जिसमें (दृष्टा में) कोई गति नहीं होती, उसका स्मरण उठना शुरू होगा। भीतर कुछ जागने लगेगा। कोई नई ज्योति सरकने लगेगी।
जैसे-जैसे यह जागरण स्पष्ट होगा कि जो दिखाई पड़ता है, वह मैं नहीं हूं; मैं केवल दर्शक हूं, द्रष्टा हूं। जीवन की क्रियाओं में जैसे-जैसे यह जागरण शुरू होता चला जाएगा, विचार और दृश्य गिरते चले जाएंगे।
जिस दिन परिपूर्ण रूप से, जिस क्षण यह होश पूरा हो जाएगा कि मैं देखने वाला हूं, केवल द्रष्टा, केवल दर्शक, केवल शुद्ध दर्शन मेरा स्वभाव है, उसी क्षण सारे दृश्य गिर जाएंगे, पर्दा खाली हो जाएगा। शून्य, केवल शून्यता रह जाएगी। शून्य ही संक्रमण है।
विचार के माध्यम से जगत से जुड़े हैं, शून्य के माध्यम से स्वयं से जुड़ना हो जाता है। जैसे ही शून्य हुआ, केवल सत्ता स्पंदित होती रह जाएगी। केवल होना, केवल अहं-ब्रह्मास्मि, मैं हूं, केवल मेरा बोध, केवल भीतर एक नया संगीत बोध का, एक नया स्मरण, एक नया ज्ञान स्पंदित होगा।
इसको सम्यक दर्शन कहा है।
‘पर’ को देखना असम्यक दर्शन है। ‘पर’ को देखना मिथ्या दर्शन है।
‘स्वयं’ को देखना सम्यक दर्शन है। सम्यक दर्शन क्रांति है।
सम्यक दर्शन हुआ, दूसरा क्या है, उसी क्षण ज्ञान हो जाएगा सत्ता का। उसी क्षण आचरण में परिवर्तन हो जाएगा।
सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक आचार, ये युगपत घटित हो जाते हैं।
दर्शन की घटना घट जाए, तो ज्ञान, आचरण युगपत घटित हो जाते हैं। भीतर दर्शन होगा, बोध ज्ञान का होगा, आचरण परिवर्तित हो जाएगा। दर्शन के विपरीत आचरण असंभव है। इसलिए आचरण को बदलना नहीं है।
आचरण को बदलने वाला साधक धार्मिक साधक नहीं है। आचरण बदल जाता है।
जड़ को बदल देना है, फूल परिवर्तित हो जाते हैं।
जड़ (दृष्टा)को भूल जाएं, फूलों (आचरण) को पकड़े रहें, धीरे-धीरे बगिया अपने से कुम्हला जाती है।
जैन-दर्शन की जो मौलिक प्राणवत्ता थी वह खो गई। इसलिए (क्योंकि) हमने गलत छोर से पकड़ा। हमने सम्यक आचार से पकड़ा।
पकड़ना सम्यक दर्शन से है।
सम्यक दर्शन प्राथमिक है, मौलिक है।
हमने पकड़ा सम्यक आचार से-व्यवहार शुद्धि, आचरण शुद्धि, इससे हम चलना शुरू करते हैं। हम गाड़ी के पीछे बैल बांध रहे हैं।
आचरण इसीलिए असम्यक है कि दर्शन असम्यक है। भीतर दर्शन गलत है, इसलिए आचरण गलत है। आचरण की भूल, आचरण का गलत होना दर्शन के कारण है।
कारण को बदलना होगा, तो कार्य बदलेगा। कार्य को बदलने से कारण नहीं बदलता है। मूल को बदलना होगा, तो फूल बदलेंगे। फूल को बदलने से मूल नहीं बदलता है।
इस बात को वापस विचार करना है। इस बात को वापस दोहराना है। और अगर हम यह दोहरा सकें और स्मरण कर सकें, और अगर महावीर को, उनकी साधना को, जिनों की साधना को इस क्रांतिकारी कोण से देख सकें, जगत में वापस वह अमूल्य साधना की निष्ठा लौटाई जा सकती है।
जो आचरण से चलेगा, वह क्षुद्र बातें करने लगेगा-खाने की, पीने की, कपड़े की, इसकी-उसकी। उसकी बातचीत सुन कर ऐसी हैरानी होगी कि ये क्षुद्र बातें उस परम तक ले जाने का कारण बनेंगी?
ये क्षुद्र चिंतन उस परम तक ले जाएगा?
तब तो बहुत सस्ता सौदा है। तब तो सौदा बहुत ही सस्ता है।
यह खाया तो मोक्ष चला जाऊंगा, यह खाया तो संसार में चला जाऊंगा। ऐसा पहन लिया तो मोक्ष चला जाऊंगा, ऐसा पहन लिया तो संसार में चला जाऊंगा। दो कौड़ी की हैं ये बातें, इनका कोई मूल्य नहीं है। इनमें जीवन को गंवा देना गलती है।
दर्शन है क्रांति का सूत्र। ज्ञान है क्रांति का सूत्र। वह घटित हो जाए, तो उसके प्रकाश में जो उचित है अपने आप आचरण वैसा होगा, सहज। आचरण कल्टीवेट नहीं करना होता, आचरण अर्जित नहीं करना होता, सहज विकसित होता है।
दर्शन घटाना होता है। महावीर की पद्धति दर्शन से आचार तक की है; आचार से दर्शन तक की नहीं।
आत्म-दर्शन केंद्रीय परिवर्तन है-अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य सब अपने आप फूल की तरह खिल जाते हैं।
मैं पढ़ता था। किसी ने लिखा है। बड़ी बगिया थी उसके घर में। मां उसको सम्हालती थी। मां बीमार हो गई। उस युवक ने कहा: मैं सम्हाल लूंगा, फिकर मत करो।
एक-एक दिन बीतने लगा, बगिया कुम्हलाने लगी, बगिया मुर्झाने लगी, बगिया मरने लगी, पौधों के प्राण छटपटाने लगे। युवक सुबह से शाम तक मेहनत करता था।
एक-एक फूल को पानी देता था। एक-एक पत्ते को नहलाता था।
पंद्रह दिन पूरे और बगिया तो वीरान हो गई।
मां स्वस्थ हुई। उसने आकर बाहर देखा, बगिया तो मर गई थी।
अपने पुत्र को पूछा: क्या हुआ यह?
तुम तो सुबह से शाम तक बगिया में थे?
युवक बोला: मैं बहुत परेशान हूं। इतना श्रम किया जिसका हिसाब नहीं। ऐसा फूल नहीं छोड़ा जिसको पानी न दिया हो, ऐसा पत्ता नहीं छोड़ा जिसको पानी न दिया हो।
मां ने जाकर देखा, लेकिन जड़ें सूखी पड़ी थीं। फूल-पत्ते नहाए हुए थे, लेकिन जड़ों में पानी नहीं डाला गया था।
मां ने कहा: फूलों के प्राण जड़ों में होते हैं। जड़ें सम्हालनी होती हैं, फूल अपने से सम्हल जाते हैं। जो फूल को सम्हाले, नादान है।
हमने (जैन दर्शन के नाम पर) फूल सम्हालने की कोशिश की है। अहिंसा की चर्चा की है, अपरिग्रह की चर्चा की है, ब्रह्मचर्य की चर्चा की है, अचौर्य की चर्चा की है, और सारी चर्चाएं की हैं।
…आत्म-ज्ञान आत्म-दर्शन ही है (चर्चा नहीं)।
जो कौम, जो जाति, जो धर्म, जो दर्शन का प्राण थी उसको भूल जाएगी, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। वह नहीं चल सकती। उसके चलने के रास्ते टूट गए। वह बगिया कुम्हला जाएगी, वह मर जाएगी।
वापस मूल को स्मरण करना है। और प्रत्येक व्यक्ति इसमें योगदान कर सकता है। अपने भीतर उसको जगा कर, अपने भीतर उसको देख कर आनंद का फूल बन सकता है। उसकी गंध, उसके जीवन का आनंद, उसका प्रकाश औरों में जगाएगा प्यास को, औरों में अतृप्ति पैदा करेगा, औरों में प्राण कंपित होंगे, औरों में परिवर्तन हो सकता है।
मैंने ये थोड़ी सी बातें आपसे कहीं। कहने को जैसे कुछ भी नहीं कहा, लेकिन अगर कहीं भी थोड़ा भीतर कुछ हिलता हुआ लगा हो, तो मेरा श्रम सार्थक हो जाता है।
मैं बहुत आनंदित हूं, और जब किन्हीं, किन्हीं क्षणों में आपकी आंख में थोड़ी सी झलक और रोशनी देखता हूं, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। लगता है कि रात जा सकती है। लगता है कि प्यास है और जग सकती है। और लगता है कि आग प्रज्वलित हो सकती है और क्रांति हो सकती है।
ईश्वर करे, सबको प्यास दे। ईश्वर करे, सबको जगाए परम को पाने के लिए। ईश्वर करे, सब जलती हुई लपटें बन जाएं, ताकि उसे पाया जा सके जो पाने जैसा है।
- ओशो, पथ की खोज, #1, आनंद हमारा स्वरूप है कॉपीराइट ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, पूना
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव मुझे सम्यक् दर्शन पहले हुआ, फिर इस दर्शन के बोध से सम्यक् ज्ञान प्राप्त हुआ और उस ज्ञान के प्रकाश में आचरण अपने आप सम्यक्कु हो गया, करना नहीं पड़ा। अतः ओशो ने महावीर के जिन दर्शन पर जो विचार रखे उन्हें मैंने सही पाया इसलिए यह पोस्ट पब्लिश किया है ताकि अब भी कुछ नुक़सान नहीं हुआ है, यदि जैन धर्म अपने ओशो के उपरोक्त मतानुसार को बदलने का साहस दिखाए। साधक को मेरे कुछ सुझाव:-
सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at https://philosia.in on May 18, 2024.