मेरा यही मिशन है कि मुल्क में एक संवाद चल पड़े — ओशो | Philosia: The Art of seeing all
मिशन यही है कि एक बात चल पड़े, एक चर्चा होने लगे, लोग सोचने लगें, लोग चेतने लगें, लोग बात करने लगें, लोग तय न रह जाएं, लोगों के पुराने कंक्लूजन न रह जाएं। वह मेरा काम मैं पूरा कर रहा हूं और वह जो मेरे विरोध में बोल रहे हैं वे भी मेरे काम में सहयोगी हो रहे हैं।
२-३ अक्तूबर १९६८, बॉम्बे, तेरहवां प्रवचन-समाजवाद: पूंजीवाद का विकास
अख़बार में आपके विरुद्ध इतना छपता है सत्य को बचाने के लिए आप अपने भाषण अख़बार में क्यों नहीं छापते? (प्रश्न का ध्वनि मुद्रण अस्पष्ट है इसलिए ओशो के जवाब के आधार पर संभावित प्रश्न लिखा है,प्रश्न के अलावा कुछ अंश ऑडियो रिकॉर्डिंग को ध्यान से सुनकर भी लिखा है उसे कोष्ठक में लिखा गया है)
(धीरूभाई),मेरे खयाल में तो अगर कोई बात सत्य है, उपयोगी है, तो सत्य अपना माध्यम खोज ही लेता है। नहीं अखबार थे तब की दुनिया में, सत्य मरा नहीं। बुद्ध के लिए कोई अखबार नहीं था, महावीर के लिए कोई अखबार नहीं था, क्राइस्ट के लिए कोई अखबार नहीं था। तो भी क्राइस्ट मर नहीं गए। अगर बात में कुछ सच्चाई है, तो सत्य अपना माध्यम खोज लेगा। अखबार भी उसका माध्यम बन सकता है। लेकिन अखबार की वजह से कोई सत्य बचेगा, ऐसा नहीं है। या अखबार की वजह से कोई असत्य बहुत दिन तक रह सकता है, ऐसा भी नहीं है। माध्यम की वजह से कोई चीज नहीं बचती है, कोई चीज बचने योग्य हो, तो माध्यम मिल जाता है। अखबार भी मिल ही जाएगा। नहीं मिले, तो भी इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। हम जो कह रहे हैं, वह सत्य है, इसकी चिंता करनी चाहिए। अगर वह सत्य है तो माध्यम मिलेगा।
और नहीं मिला तो भी क्या हर्ज है, तो भी कोई हर्ज नहीं है।
लेकिन इस युग में फर्क पड़ा है, और वह फर्क यह है कि थोड़ी-बहुत देर तक प्रचार के द्वारा असत्य को भी चलाया जा सकता है। प्रोपेगेंडा, असत्य को भी थोड़ी देर तक तो चला ही सकता है। सत्य जैसा दिखा ही सकता है। और थोड़ी देर तक प्रोपेगेंडा सत्य को भी प्रचारित होने से रोक ही सकता है। लेकिन यह चरम बात नहीं है, यह थोड़ी देर के लिए बात है।
सभी आपके विरोधी हैं तो आपके मिशन का क्या होगा?
एक तो यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिलकुल स्वाभाविक है क्योंकि जो मैं कह रहा हूं, वह बहुत से न्यस्त-स्वार्थों के विपरीत कह रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं, वह बहुत सी दुकानों, बहुत से पुरोहितों, बहुत से वादों के विपरीत कह रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं, वह जो पुराना है, उसके विपरीत है। तो पुराना अपनी रक्षा के उपाय करेगा। लेकिन मेरी समझ यह है कि जब भी कोई विचार रक्षा की, डिफेंस की हालत में आ जाता है, तो उसकी मौत करीब है। जब भी कोई विचार डिफेंसिव हो जाता है और रक्षा करने लगता है अपनी तब उसकी मौत करीब आ जाती है। और जब विचार जीवंत होता है, तब वह आक्रामक होता है और जब मरने लगता है, तब वह रक्षात्मक हो जाता है। इसलिए मेरे लिहाज से वह शुभ लक्षण है। और अगर एक आदमी को न्यूट्रलाइज करने के लिए दो साल मेहनत करनी पड़ी हो, तो ये बड़े शुभ लक्षण हैं। और एक आदमी को अगर मुल्क भर में सारे लोगों को एक आदमी से लड़ना पड़ता हो…और मैं एक दिन के लिए आऊं और उनको फिर साल भर लड़ाई चलानी पड़ती हो, तो ये बड़े शुभ लक्षण हैं। साधारण लक्षण नहीं हैं। ये बड़े शुभ लक्षण हैं। इसका मतलब यह है कि वह एक बात उनकी समझ में आ गई है कि वे डिफेंस में हैं।
दूसरी बात यह है कि जो मैं कह रहा हूं, और जो वे कह रहे हैं, हम दोनों के बल अलग हैं। अलग का मेरा मतलब यह है कि मेरा बल भविष्य में है, आने वाली पीढ़ी में है, उनका बल अतीत में है, जाने वाली पीढ़ी में है। उनका जो बल है, वह जाने वाली पीढ़ी में है और अतीत में है। उनका बल डूबते हुए सूरज में है। मेरा बल उगते हुए सूरज में है।
इसलिए मुझे उनकी कोई बहुत चिंता लेने जैसी बात नहीं है। अगर बीस साल हम इसी तरह भी लड़ते रहे, तो भी आप देखेंगे कि उनका सूरज डूबता है। क्योंकि जिन पर उनका बल है, वे बीस साल में विदा हो जाएंगे, जिन पर मेरा बल है, वे बीस साल में शक्तिशाली हो जाएंगे। इसलिए लड़ाई आज भला ऐसी लग सकती है कि मैं कुछ कह कर जाता हूं, फिर साल-छह महीने में उसको लीप-पोत दिया जाता है, लेकिन ऐसा बीस साल पहले नहीं कहा जा सकता है। और एक बड़े मजे की बात यह है कि जब मुझे गलत सिद्ध करने में या मैं जो कह गया हूं, उसे लीप-पोंछ डालने में उनको सारी ताकत लगानी पड़ रही है, तो वे कुछ दे नहीं पाएंगे और बीस साल में उनका काम सिर्फ इतना ही रह जाएगा, जैसा कि घर में सुबह नौकर घर को साफ करता हो, कचरा साफ करता हो, उससे ज्यादा उनका मूल्य नहीं रह जाएगा। वे क्रिएटिव देने की हालत में कुछ भी नहीं हैं।
मैं उनकी चिंता नहीं लेता। मुझे जो कहना है, वह मैं कहे चला जाऊंगा। मुझे जो ठीक लगता है, वह मैं दोहराए चला जाऊंगा। मुझे जो अच्छा लगता है, उसे मैं बनाए चला जाऊंगा। मेरा भरोसा क्रिएटिविटी में है। मेरा भरोसा इसमें नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं, मैं उनसे जूझने जाऊं, क्योंकि मैं मानता हूं कि वे हारी हुई बाजी लड़ रहे हैं। इसलिए उनकी चिंता लेने की जरूरत नहीं है।
और फिर एक बात है कि कुछ चीजें हैं, जो मर चुकी हैं-सिर्फ कुछ स्वार्थ उनको जिंदा रखे हुए हैं, लाशें हो चुकीं हैं। मकान गिर चुका है; लेकिन कुछ लोग बल्लियां लगाए हुए सम्हाले खड़े हैं। क्योंकि उनका सारा स्वार्थ उसमें है। और हम इतने बड़े संक्रमण के समय में हैं, इतना बड़ा ट्रांस्फार्मेशन करीब है, इतने जोर से सारी दुनिया बदल रही है कि बल्लियां बहुत ज्यादा देर नहीं रोकी जा सकती हैं। और न बहुत ज्यादा देर मुर्दे को अब जिंदा रखा जा सकता है। वह तो गिरेगा।
तो मेरा काम इतना ही है कि मैं यह बता जाऊं कि यह जो लाश पड़ी है, यह जिंदा नहीं है। और मैं मानता हूं कि अगर एक दफा आपको दिखाई पड़ जाए कि लाश है और जिंदा नहीं है, तो फिर पचास गुरु भी आपको समझा कर नहीं बता सकते हैं कि यह जिंदा है। एक दफा दिखाई पड़ जाना चाहिए फिर बहुत मुश्किल है। और फिर…
अब जैसे राजकोट जैसी जगह है, अगर दो लाख आदमी रहते हैं। दो लाख लोग तो मुझे नहीं सुनते हैं। थोड़े से लोग मुझे सुनते हैं। जरूरी नहीं है कि वे ही लोग उनको सुनते हों, जो मेरा विरोध कर जाते हैं। लेकिन एक मेरी समझ है और मेरी समझ यह है कि मुझे सुनने में रोज-रोज, नये से नया युवक उत्सुक हो रहा है। उस पर मेरी यात्रा है। और अगर कोई वृद्ध भी मेरी इन बातों में उत्सुक हो रहा है, तो मैं मानता हूं कि किसी गहरे अर्थ में वह वृद्ध नहीं है, क्योंकि मेरे साथ वृद्ध खड़ा ही नहीं रह सकता। अगर कोई बूढ़ा आदमी भी मेरे पास आ रहा है, तो किसी न किसी अर्थ में उसकी आत्मा जवान है, तो ही मेरे पास आ रहा है, नहीं तो नहीं आ रहा।
और वे जो मेरे विरोध में काम कर रहे हैं, उनके पास अगर आप देखेंगे, तो वहां आपको बिलकुल कब्र में जिनका एक पैर चला गया है, वे लोग आपको दिखाई पड़ेंगे। मंदिर में, मस्जिद में, पुरोहित के पास, गुरु के पास मरा हुआ आदमी दिखाई पड़ेगा। उससे आशा नहीं बांधी जा सकती है। और यह भी मेरी समझ है कि दुनिया में जब भी कोई क्रांतियां होती हैं तो कोई सारा मुल्क क्रांति नहीं करता। एक चुना हुआ वर्ग, एक सोच-विचारशील वर्ग, एक इंटेलिजेंसिया, यह जो बहुत छोटा सा हिस्सा होता है, वह क्रांति करता है। यह मेरी समझ है कि वह जो इंटेलिजेंसिया है, वह जो सोच-विचारशील वाला वर्ग है, वह पुराने गुरुओं के पास नहीं है, न हो सकता है, उससे उसकी टूट हो गई है, वह उससे चला गया है, वह उसके पास नहीं है। चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, कवि हो, लेखक हो, विचारक हो, दार्शनिक हो, चिंतक हो, वह वहां नहीं है, जो मेरे विरोध में लगे हुए हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे मेरी बातों में उत्सुक हो रहा है।
तो मेरी अपनी समझ यह है कि देश की जो इंटेलिजेंसिया है, वह जो देश का सोचने वाला वर्ग है, जरूरी नहीं है कि सोचने वाला वर्ग धनी हो। अक्सर ऐसा नहीं होता है। अक्सर सोचने वाला वर्ग धनी नहीं होता। सोचने वाला वर्ग अक्सर मध्य वर्ग से आता है। सारी दुनिया की जो क्रांति है, सब मध्यम वर्ग से आती है। तो मेरी नजर में वह खयाल में है कि वह वर्ग मुझमें उत्सुक हो रहा है, और यह भी बड़े मजे की बात है कि वह वर्ग मुझमें ही उत्सुक हो सकता है, वह उनमें उत्सुक नहीं हो सकता है। उसके और उनके बीच के सेतु टूट गए हैं। इसलिए मुझे चिंता नहीं है।
मैं अपनी बात कहे चला जाता हूं, और फिर मुझे इसका भी फर्क नहीं पड़ता कि क्या परिणाम होगा? इतनी बड़ी जिंदगी में हमें परिणाम की चिंता में नहीं पड़ना चाहिए। मैं जो कर रहा हूं वह ठीक होना चाहिए, इतना मुझे भरोसा होना चाहिए, परिणाम क्या होगा इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। वह कोई हिसाब-किताब भी नहीं किया जा सकता। मुझे ठीक लग रहा है, उसे कहने में मैं आनंदित हूं, बात खतम हो गई। अगर वह कुछ उपयोग का होगा, तो लोग उसका उपयोग कर लेंगे, नहीं उपयोग का होगा तो लोग उसे भूल जाएंगे।
ऐसा भी मेरा आग्रह नहीं है कि जो मैं कह रहा हूं, उसे लोगों को मानना ही चाहिए। ऐसा भी मेरा आग्रह नहीं है कि मेरी बात मान कर ही सब कुछ हो जाना चाहिए। अगर वह ठीक होगी तो वह मान लेंगे, अगर ठीक नहीं होगी तो अच्छा ही है कि न मानें। संघर्ष तो चलेगा, और इसलिए मैं मानता हूं कि जो आदमी आकर कहता है कि मैं गलत कह रहा हूं, वह भी मेरे काम में सहयोगी है। क्योंकि हो सकता है, मैं गलत ही कह रहा हूं। तब देश के हित में ही है कि कोई पूछेगा कि मैं गलत हूं। और हो सकता है मैं सही कह रहा हूं, तो उसके गलत कहने से बहुत देर तक यह बात चलने वाली नहीं है। लोग भी सोचेंगे, समझेंगे। जो ठीक होगा उन्हें दिखाई पड़ेगा। इसलिए मैं आग्रहशील नहीं हूं।
इसलिए जैसा आप कहते हैं कि आपके मिशन का क्या होगा? एक अर्थ में मेरा कोई मिशन नहीं है, क्योंकि मिशन का मतलब आग्रह होता है। यानी मैंने कोई ठेका ले रखा हो कि नहीं ऐसा ही हो जाना चाहिए दुनिया में, ऐसा मेरे मन में कोई भाव नहीं है, मिशनरी में नहीं हूं। मुझे जो ठीक लग रहा है, वह मैं आपसे कह देता हूं। इतना मैं अपना दायित्व समझता हूं कि मुझे ठीक लग रहा हो और मैं आपसे न कहूं, तो थोड़ी मनुष्यता की मुझमें कमी है।
जो ठीक लग रहा था वह मैंने आपसे कह दिया है, मेरा काम पूरा हो गया है। आप रास्ते से जा रहे हैं। मैंने देखा, पास में गङ्ढा है जिसमें मैं गिर सकता हूं। और मैंने आपसे कहा कि गङ्ढा है और बात खतम हो गई। फिर भी आप गिरते हैं, वह आपकी मौज रही, उसका मुझ पर कोई जिम्मा न रहा। लेकिन में बैठा हूं, आप गङ्ढे में जा रहे हैं। मैं बैठा देखता हूं। आप गङ्ढे में गिर जाएं और मैं देखता रहूं, तो आपके गङ्ढे में गिरने में, मैं भी जिम्मेवार था। इसका दायित्व मुझ पर भी हो जाएगा। तो मेरा इतना है कि मैं चिल्ला कर आपको कह दूं कि ऐसा हो रहा है। फिर आपकी मर्जी।
और हर आदमी को हक है कि अपनी मर्जी से तय करे और इसलिए हजारों करेंट चलते हैं जिंदगी में, कोई एक करेंट निर्धारित हो ही नहीं सकता। इन सबके चिंतन का इकट्ठा परिणाम अंत में निर्धारित होता है। अगर हम बीस लोग यहां बैठ कर बात करें, तो न तो मैं सत्य का निर्धारक हो सकता हूं, न आप। लेकिन अगर हम सत्य के खोजी हैं और बीस लोग विवाद करें, वाद करें, संवाद करें, चर्चा करें, तो अंत में जो सत्य बीस लोगों की चर्चा से निकलेगा, न तो मेरा होगा, न वह आपका होगा। लेकिन अगर इन बीस लोगों ने ईमानदारी से सत्य की खोज की है, तो मैं जिसको सत्य कहता था, उससे भी ज्यादा सत्यतर होगा, आप जिसे सत्य कहते थे, उससे ज्यादा सत्यतर होगा।
तो जिंदगी तो एक बड़ा डायलाग है। उसमें जो गलत कह रहा है, सही कह रहा है, वह सबका उपयोग है। और मुल्क एक स्थिति में है, जहां हमें कुछ निर्णय लेने हैं, जो हमने हजारों साल तक पोस्टपोन किए थे। तो उन निर्णय लेने की स्थितियों में मेरे विचार मुझे सामने रख देने हैं। आपको अपने रख देने हैं, किसी को अपने रख देने हैं। एक डायलाग होगा, पूरा मुल्क सोचेगा, समझेगा, उससे कुछ निकलेगा। वह निकला हुआ न मेरा होगा, न आपका होगा, न किसी को होगा। वह हम सबका सम्मिलित फल होगा। और उस सम्मिलित फल के लिए मेरी चिंता है। इसलिए मेरा कोई मिशन नहीं है। अगर मिशन की भाषा में कहें तो मेरा यही मिशन है कि मुल्क में एक संवाद चल पड़े। एक बात चल पड़े, एक चर्चा होने लगे, लोग सोचने लगें, लोग चेतने लगें, लोग बात करने लगें, लोग तय न रह जाएं, लोगों के पुराने कंक्लूजन न रह जाएं। वह मेरा काम मैं पूरा कर रहा हूं और वह जो मेरे विरोध में बोल रहे हैं वे भी मेरे काम में सहयोगी हो रहे हैं।
मैं चाहता हूं, मुल्क ऐसी स्थिति में आ जाए, नो कंक्लूजन में, जिसके पास निष्कर्ष नहीं है, क्योंकि जिस कौम के पास निष्कर्ष पक्के हो जाते हैं, वह कौम सोचना बंद कर देती है। फिर सोचने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। हमेशा हमारा कंक्लूजन पहले से तय होता है, सोचने की कोई जरूरत नहीं है, हमने कोई दोत्तीन हजार साल से सोचा नहीं है। इसलिए मैं मानता हूं कि मुल्क अगर संदिग्ध हो जाए, इतना काम मैं करूंगा। इतना मैं हर मुद्दे पर कर दूंगा, इतना काम हो जाएगा। इसमें कोई शक ही नहीं है। मैं संदेह में डाल दूंगा। जो मेरे विरोध में आएंगे, वे भी मेरा काम कर जाएंगे, क्योंकि वे मेरे साथ भी आपको निस्संदिग्ध न होने देंगे, मेरे साथ भी संदिग्ध कर देंगे।
मुल्क संदेह की स्थिति में आ जाए-ए मूड ऑफ डाउट पैदा हो जाए तो काम पूरा हो जाएगा। उस संदेह से बहुत कुछ पैदा हो सकता है। बहुत सृजनात्मक विचार का जन्म हो सकता है।
और दुनिया में जो भी ऐसे हुए हैं, जिन्होंने दान किया है, वे संदेह के युग हैं। जैसे बुद्ध और महावीर के वक्त, आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले बिहार ने कुछ दान दिया। वह बड़े संदेह का युग था, बिहार के लिए। बिहार में कोई आठ तीर्थंकर थे और वे आठों अपनी बात कह रहे थे, और आठों बाकी सात के विरोध में थे। तो बिहार ने दान दिया था। एथेंस में साक्रेटीज और प्लेटो और अरस्तू के जमाने में संदेह का युग था। पच्चीसों विचारक थे, जो अपनी बात कह रहे थे। एथेंस जो उस समय दे गया, फिर नहीं दे सका कभी भी।
आज मैं मानता हूं कि उस तरह का संदेह जहां भी है, जिस देश में है। जैसे रूस में नहीं है, पिछले पच्चीस साल में रूस की बुद्धिमत्ता ने कोई बहुमूल्य चीजें नहीं दीं। आश्चर्यजनक है कि उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस एक संदेह का युग था, तो दोस्तोवस्की पैदा हुआ, उसी से लेनिन पैदा हुआ। रूस में बहुत अदभुत लोग पैदा हुए। उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस में कोई बीस ऐसे अदभुत आदमी हुए, जो कि किसी भी कौम को हजारों साल के लिए गौरव दे दें। लेकिन उसके बाद नहीं हो सके। उसके बाद जड़ हो गए, क्योंकि रूस के पास कंक्लूजन हो गया, उसके पास पक्का कंक्लूजन हो गया। उसको अब कोई सोचने की जरूरत न रही।
तो मैं यह कहता हूं, यह जो मुल्क है, कोई दोत्तीन हजार साल से अंधेरे में जी रहा है। एथेंस, या उन्नीस सौ सत्रह के पहले का रूस या बुद्ध के जमाने का बिहार, ऐसा इस मुल्क में नहीं हो पा रहा है। इतना काम भी पूरा हो जाए तो मेरा काम पूरा हो जाए।
आज के भारत में जो क्लाइमेक्स आ गई है-अगर यही स्थिति है और पंद्रह-बीस सात तक और चली गई तो ऐसा नहीं है कि…।
हां, हो सकता है, इसलिए जल्दी करने की जरूरत है। इसलिए मुल्क जल्दी चिंतन करे, इसकी चिंता करने की जरूरत है। और जो आप कहते हैं, क्लाइमेक्स तक पहुंच गए हैं, वह मैं (नहीं) मानता। क्योंकि क्लाइमेक्स पर पहुंच कर सदा क्रांति हो जाती है। हम क्लाइमेक्स पर नहीं पहुंच रहे हैं। बल्कि हम इतनी कमजोर कौम हैं कि छोटी सी गड़बड़ होती है, उसको हम क्लाइमेक्स (कहने लगते हैं, क्लाईमेक्स) नहीं हो गया है, क्लाइमेक्स तक पहुंच जाए तो सौभाग्य है हमारा। क्लाइमेक्स के बाद परिवर्तन है। सौ डिग्री पर पानी उबलने लगे तो भाप बनेगी ही, लेकिन भाप बनती नहीं है और हम कहते हैं क्लाइमेक्स पर पहुंच गए हैं! -ओशो, देख कबीर रोया, #१३ समाजवाद पूंजीवाद का विकास
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै (ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो से यह इंस्टाग्राम पर ओशो का ऑडियो लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें। ) और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at https://philosia.in on October 5, 2024.