मेरे संकल्प करने वाले मन, अपने किए हुए कर्मों का स्मरण कर। | Philosia: The Art of seeing
ओशो ईशा उपनिषद के चैप्टर #11 वह शून्य है में अपने शिष्यों के साथ चर्चा करते हुए कहते हैं :-
इशावस्य उपनिषद का ऋषि कहता है।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर।।17।।
अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायुरूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्मशेष हो जाए। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किए हुए को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किए हुए को स्मरण कर।।17।।
जीवन मिल जाए उसी में, जहां से जन्मा है। आकार खो जाए उस निराकार में, जहां से आकार निर्मित हुआ है। ये प्राण वायु के साथ एक हो जाएं। शरीर धूल में, मिट्टी में समा जाए। ऐसे क्षण में-और ऐसे क्षण दो हैं, उनकी मैं आपसे बात करूंगा-ऐसे क्षण में ऋषि ने कहा है अपने संकल्पात्मक मन से कि हे मेरे संकल्प करने वाले मन, अपने किए हुए कर्मों का स्मरण कर, अपने किए हुए कर्मों का स्मरण कर।
एक मित्र आए दो दिन पहले। मुझे उन्होंने पत्र लिखा था कि आता हूं शिविर में। चित्त में बड़ी अशांति है। आए। तीन दिन के प्रयोग ने अशांति को तिरोहित किया।
तीन दिन बाद मेरे पास आए और कहने लगे, अशांति तो चली गई, लेकिन यह शांति कहीं धोखा तो नहीं है?
मैंने उनसे पूछा कि अशांति धोखा नहीं है, ऐसा कभी मन ने कहा था कि नहीं?
उन्होंने कहा, मन ने ऐसा कभी नहीं कहा। कितने दिन से अशांत हैं?
तो उन्होंने कहा कि सदा से अशांत हूं। लेकिन मन ने कभी यह नहीं कहा कि अशांति धोखा तो नहीं है! अभी तीन दिन से शांत हुए, तो मन कहता है, कहीं शांति धोखा तो नहीं है?
बहुत अदभुत मन है।
अगर परमात्मा भी आपके मन को मिल जाए तो मन कहेगा, पता नहीं, असली है कि नकली?
-अगर मन हो मौजूद।
इसीलिए परमात्मा मन के रहते मिलता नहीं। क्योंकि मन उसको बड़ी दिक्कत में डालेगा। मन को आनंद भी मिल जाए तो भी संदिग्ध होता है, पता नहीं, है या नहीं?
मन संदेह निर्मित करता है, शंकाएं निर्मित करता है, समस्याएं निर्मित करता है, चिंताएं निर्मित करता है।
फिर भी मन को हम इतने जोर से क्यों पकड़ते हैं?
अगर मन सारी बीमारियों की जड़ है, जैसा कि समस्त जानने वाले कहते हैं, तो फिर हम मन को इतने जोर से क्यों पकड़े हुए हैं?
वही कारण है, जिससे ऋषि व्यंग्य कर रहा है।
मन को हम इसलिए जोर से पकड़े हैं कि हमको डर है कि अगर मन नहीं रहा तो हम न रहेंगे। असल में हमने जाने-अनजाने में मन को अपना होना समझ रखा है। आइडेंटिटी कर रखी है। समझ लिया है कि मैं मन हूं।
जब तक आप समझेंगे कि मैं मन हूं, तब तक आप समस्त बीमारियों को पकड़े बैठे रहेंगे, छाती से लगाए बैठे रहेंगे। आप मन नहीं हैं।
आप तो वह हैं, जो मन को भी जानता है, जो मन को भी देखता है, जो मन को भी पहचानता है। पीछे हटना पड़ेगा थोड़ा मन से। थोड़ा दूर होना होगा। थोड़ा पार उठना पड़ेगा।
जरा किनारे खड़े होकर मन की धारा को देखना पड़ेगा कि वह रही मन की धारा।
आप मन नहीं हैं, लेकिन समझा हमने यही है कि मैं मन हूं। जब तक आप समझे हैं कि मैं मन हूं, तब तक आप मन को छोड़ेंगे कैसे?
क्योंकि वह तो प्राणघाती हो जाएगी बात।
मन को छोड़ना मतलब मरना हो जाएगा। तो फिर आप मन को नहीं छोड़ सकेंगे। मन को वही छोड़ सकता है, जो जान ले कि मैं मन नहीं हूं।
समाधि का पहला चरण यह अनुभव है कि मैं मन नहीं हूं। जब यह अनुभव गहरा होने लगता है और इतना गहरा हो जाता है कि यह आपकी स्पष्ट अनुभूति हो जाती है कि मैं मन नहीं हूं, जिस दिन यह अनुभूति पूर्ण होती है, उसी दिन मन तिरोहित हो जाता है।
मन उस दिन उसी तरह तिरोहित हो जाता है, जैसे किसी दीए का तेल चुक जाए। दीए का तेल चुक जाए तो भी थोड़ी देर बाती जलेगी, थोड़ी देर। बाती में थोड़ा तेल चढ़ गया होगा इसलिए। लेकिन दीए का तेल चुक जाए तो बाती थोड़ी देर जलेगी चढ़े हुए तेल से, पर थोड़ी ही देर।
वही स्थिति है ऋषि की। तेल चुक गया है। जान लिया ऋषि ने कि मैं मन नहीं हूं। लेकिन बाती में जो थोड़ा सा तेल चढ़ गया है, अभी ज्योति जल रही है। इस आखिरी जलती और अंतिम समय में बुझती ज्योति से ऋषि कहता है, तूने मुझे धोखा दिया था कि सदा साथ देगी और प्रकाश देगी। तेरा तो बुझने का क्षण आ गया!
अब मैं देखता हूं कि तेल तो चुक गया है, कितनी देर जलेगा मेरा संकल्पात्मक मन?
अब तो सारी बात समाप्त हुई जाती है।
लेकिन फिर भी मैं हूं।
तो अपने ही विदा होते मन को वह कह रहा है कि मैं था, मैं सदा तुझसे अलग था, लेकिन सदा मैंने तुझे अपने साथ एक समझा। वही मेरी भ्रांति थी। वही संसार था। वही माया थी।
अपने से तो कह ही रहा है, मैंने आपसे कहा कि आपसे भी कह रहा है।
लौटकर देखें तो शायद खयाल आ जाए। बीस साल पहले लौट जाएं, बच्चे थे। क्लास में प्रथम आने की कैसी आकांक्षा थी भारी। रात-रात नींद न आती थी। परीक्षा प्राणों पर संकट मालूम पड़ती थी। लगता था कि सब कुछ इसी पर टिका है।
आज न कोई परीक्षा रही, न क्लास रही। लौटकर याद करें। लौटकर याद करें, क्या फर्क पड़ा कि प्रथम आए थे कि द्वितीय, कि तृतीय, कि बिलकुल नहीं आए थे।
क्या फर्क पड़ा?
आज कोई याद भी नहीं आती। दस साल पीछे लौटें। किसी से झगड़ा हो गया है, लगता है कि जीवन-मरण का सवाल है। आज दस साल बाद बात ऐसे हो गई, जैसे पानी पर खींची गई रेखाएं मिट गई हैं।
किसी ने राह में गाली दे दी थी तो ऐसा लगा था कि अब कैसे बचेंगे?
बचे हैं भली तरह। गाली भी नहीं है, कुछ पता भी नहीं है, आज कोई याद भी नहीं आता। आज लौटकर वापस देखें, कितना मूल्य दिया था उस क्षण?
उतना मूल्य रह गया है कुछ?
कुछ भी मूल्य नहीं रह गया। आज जिस चीज को मूल्य दे रहे हैं, ध्यान रखना, कल इतनी ही निर्मूल्य हो जाएगी।
इसलिए आज भी बहुत मूल्य मत देना।
कल के अनुभव से आज भी मूल्य को खींच लेना। ऋषि समस्त अनुभवों के आधार पर कह रहा है कि तेरे ऊपर मैंने बहुत मूल्य दिया संकल्पात्मक मन। आज आखिरी विदा में तुझसे कहता हूं कि धोखा था, वंचना थी, मूढ़ता थी।
मैं तुझसे अलग था, अलग हूं।
इस (समाधि के) क्षण में जब मन विलीन होता है, तो सब विलीन हो जाता है। क्योंकि मन के आधार पर ही सब जुड़ा है। मन जो है, वह न्यूक्लियस है। उसके ऊपर ही सारे जीवन का चाक घूमता है।
बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ, उन्होंने एक अदभुत बात कही। जिस दिन पहली बार उनका मन मिटा और वह मन-शून्य दशा में प्रविष्ट हुए, उस दिन उन्होंने भी ठीक ऐसी ही बात कही, जैसा उपनिषद के इस ऋषि ने कही है। उन्होंने कहा कि मेरे मन, अब तुझे विदा देता हूं।
अब तक तेरी जरूरत थी, क्योंकि मुझे शरीर रूपी घर बनाने थे। लेकिन अब मुझे शरीर रूपी घर बनाने की कोई जरूरत न रही, अब तू जा सकता है। अब तक मुझे जरूरत थी, शरीर बनाना पड़ता था, तो वह मन के आर्किटेक्ट को, वह मन के इंजीनियर को पुकारना पड़ता था। उसके बिना कोई शरीर का घर नहीं बन सकता था।
आज तुझे विदा देता हूं, क्योंकि अब मुझे शरीर के बनाने की कोई जरूरत न रही। अब मुझे अपना परम निवास मिल गया है, अब मुझे कोई घर बनाने की जरूरत न रही। अब मैं वहीं पहुंच गया हूं, जो मेरा घर है। अब मुझे बनाने की कोई जरूरत न रही। अब मैं असृष्ट स्वरूप के घर में पहुंच गया हूं। स्वयं में पहुंच गया हूं, निजता में, अब मुझे कोई घर बनाने की जरूरत न रही। अब मन तू जा सकता है।
साधक के लिए ऐसे सूत्र कीमत के हैं। कंठस्थ करने से फायदा नहीं है। हृदयस्थ करने से फायदा है। कंठस्थ कर लें, याद कर लें, रोज दोहरा दें, बासे पड़ जाएंगे। धीरे-धीरे अर्थ भी खो जाएगा। धीरे-धीरे शब्द ही रह जाएंगे-मुर्दा, अर्थहीन।
लेकिन अगर हृदय तक पहुंच जाए बात, समझ में आ जाए यह बात-इंटलेक्चुअल अंडरस्टैंडिंग नहीं, केवल बौद्धिक समझ नहीं-यह प्राणगत समझ में आ जाए कि सच ही यह मन सिवाय धोखे के और कुछ भी नहीं है, तो आपकी जिंदगी एक नई यात्रा पर, एक नई क्रांति में प्रवेश कर जाएगी।
च्वांगत्से एक खोपड़ी को घर ले आया जिसपर उसकी लात गलती से लग गई थी। और अपने कमरे में अपने बिस्तर के पास ही रखने लगा।
जो भी आता, वही चौंककर देखता कि यह खोपड़ी यहां क्यों है?
च्वांगत्से कहता कि मेरा जरा पैर लग गया था। अब यह आदमी मर गया है, अब बड़ी मुश्किल है। माफी किससे मांगूं?
तो इसकी खोपड़ी ले आया हूं, रोज इससे माफी मांगता हूं कि शायद सुनाई पड़ जाए। लोग कहते, आप कैसी बातें कर रहे हैं?
तो च्वांगत्से कहता कि इसलिए भी इस खोपड़ी को ले आया हूं कि इसे देखकर मुझे रोज खयाल बना रहता है कि आज नहीं कल अपनी भी खोपड़ी किसी मरघट पर ऐसी ही पड़ी होगी। लोगों की ठोकरें लगेंगी। कोई माफी भी मांगेगा तो हम माफ करने की हालत में भी नहीं होंगे, नाराज होने की तो बात अलग है।
तो जिस दिन से इस खोपड़ी को लाया हूं, अपनी खोपड़ी के बाबत बड़ी समझ पैदा हुई है। अब अगर कोई मेरी खोपड़ी को लात मार जाए, तो मैं इस खोपड़ी की तरफ देखकर शांत रहूंगा।
यह एक्झिस्टेंशियल अंडरस्टैंडिंग हुई। यह अस्तित्वगत समझ हुई, बौद्धिक नहीं। इसका परिणाम हो गया। यह आदमी बदल गया।
यह सूत्र आपके हृदय तक पहुंच जाए और जब आप कोई कर्म कर रहे हों या कर्म की योजना बना रहे हों और मन कह रहा हो कि ऐसा करो, कि यह इलेक्शन आ रहा है, इसमें लड़ो और जीत जाओ.।
अब कोई डिप्टी कलेक्टर से लेकर डिप्टी प्राइम मिनिस्टर तक की यात्रा कर लिए। उससे कोई हल नहीं होता। आगे भी कितनी यात्रा करें, कुछ हल नहीं होगा।
पर मन हारे तो मुसीबत में डालता है, जीते तो मुसीबत में डालता है। मन की हालत जुआरी जैसी है। जुआरी हार जाए तो सोचता है, एक दांव और लगा लूं, शायद जीत जाऊं। और जीत जाए तो सोचता है कि अब चूकना ठीक नहीं है, एक दांव और लगा लूं, जब जीत ही रहा हूं। इसलिए जुआरी कभी जीतकर नहीं लौटता। जीतता है तो और लगाता है, क्योंकि जीतने से आशा बढ़ जाती है।
जब तक हार न जाए, तब तक जीतना कहता है, और दांव लगा लूं।
हार जाए तो मन कहता है कि हार गए। हारकर लौटना उचित है कहीं?
एक दांव और देख लो। कौन जाने जीत हो जाए?
मन जुआरी की तरह है। इस सूत्र को स्मरण रखना। जब मन दांव लगाने की बात करे, हार-जीत की बात करे, तब कहना कि हे मेरे संकल्पात्मक मन, अपने किए हुए का स्मरण कर।
इससे कर्म के प्रति जो भारी लगाव है वह क्षीण होगा, और कर्ता होने की जो जड़ता है वह टूटेगी। और समाधि की ओर कदम बढ़ सकेंगे। ध्यान की ओर यात्रा हो सकेगी।
ध्यान रखें, मन के साथ मूर्च्छा नहीं चलेगी। मन के साथ बेहोशी नहीं चलेगी। अगर आप बेहोश ही चले जाते हैं मन के साथ, मूर्च्छित ही चले जाते हैं मन के साथ, तो मन पुनरुक्त करता रहेगा वही, जो उसने कल किया था।
यह बात आपसे कहना चाहूंगा, शायद आपके खयाल में न हो कि आपका मन कोई नए काम नहीं करता। बस, उन्हीं-उन्हीं कामों को पुनरुक्त करता चला जाता है।
कल भी क्रोध किया था, परसों भी क्रोध किया था। और मजा यह है कि परसों क्रोध करके भी पछताए थे कि अब न करेंगे। और कल भी क्रोध करके पछताए थे कि अब न करेंगे।
आज भी क्रोध किया है और आज भी पछताए हैं कि अब न करेंगे।
क्रोध भी पुराना है, पश्चात्ताप भी पुराना है। रोज उसको दोहराए चले जाते हैं।
अगर क्रोध न छूटता हो तो कम से कम पश्चात्ताप ही छोड़ दें। ( और यही मैंने किया, जब भी क्रोध किया तो पश्चाताप करना छोड़ दिया, और उससे क्या नुक़सान हुआ उसकी पूरी ज़िम्मेदारी मैंने अपने ऊपर ली। उससे सीख ली लेकिन पश्चाताप नहीं किया। )
कहीं से तो पुराना टूटे। लेकिन नहीं, क्रोध भी जारी रहेगा, पश्चात्ताप भी जारी रहेगा। वही-वही दोहरता रहेगा। पूरी जिंदगी एक रिपीटीशन है।
कोल्हू के बैल से भिन्न नहीं है। लेकिन कोल्हू के बैल को भी शक पैदा होता होगा कि बड़ी यात्रा कर रहे हैं। क्योंकि आंखें तो बंधी होती हैं, पैर चलते रहते हैं, तो कोल्हू के बैल को भी खयाल तो आता ही होगा कि कितना चल चुके?
न मालूम पृथ्वी की यात्रा कर ली, कहां पहुंच चुके?
मन भी कोल्हू के बैल की तरह चलता है वर्तुल में। वही कर रहे हैं आप रोज। अगर एक आदमी अपनी जिंदगी की डायरी रखे, लेखा-जोखा रखे, तो बहुत चकित होगा कि मैं मशीन तो नहीं हूं?
वही-वही दोहराए चला जा रहा है! वही सुबह है, वही उठना है, वही सांझ है!
अगर पति-पत्नी बीस साल साथ रह लेते हैं, तो पति सांझ को देर से लौटकर घर में क्या कहेगा, पत्नी पहले से जानती है। बीस साल का अनुभव! पति जो भी कहेगा, उसका क्या परिणाम पत्नी पर होगा, वह पति जानता है।
फिर भी पति वही कहेगा और पत्नी वही कहेगी।
इस तरह मन की यांत्रिकता में जो डूबकर, मूर्च्छित होकर चल रहा है, उसे कितने ही अवसर मिलें, वह सारे अवसर चूक जाएगा। अवसर हमें कम नहीं मिलते। अवसर बहुत हैं। लेकिन हम हर अवसर चूक जाते हैं। हम अवसर चूकने में कुशल हैं। जिंदगी रोज मौका देती है कि तुम नए हो जाओ, मत करो पुराना। लेकिन हम फिर पुराना करते हैं।
क्यों, यह क्यों होता होगा ऐसा?
यह अपने किए हुए का स्मरण कर, यह सूत्र हमारे खयाल में नहीं है। (और अद्भुत है यह सूत्र, क्योंकि जब भी अपने जीवन में मैं क्रोध में बहने से रुका हूँ तो उसका कारण यही रहा कि या मुझे पहले किया हुआ क्रोध और उसका परिणाम मुझे याद आ गया या फिर मैंने क्रोध को होंशपूर्वक अपने शरीर के ऊपर ऊपर अतिक्रमण करते हुए देख लिया। बस फिर आगे नहीं बढ़ता वह और ऐसे चुपचाप दुम दबाकर बैठ जाता है जैसे कोई किसी कुत्ते बिल्ली को डंडा दिखाता हो।)
जब आप कल क्रोध करें तो क्रोध करने के पहले अपने मन से कहना कि हे मेरे मन, अपने पहले किए हुए क्रोधों का स्मरण कर!
पहले इसको कह लेना। फिर दो क्षण रुककर अपने पहले किए हुए क्रोधों का स्मरण कर लेना। और मैं आपसे कहता हूं कि आप क्रोध करने में असमर्थ हो जाएंगे। जब कल मन फिर वासना से भर जाए, तब अपने मन को कहना कि हे मेरे संकल्पात्मक मन, अपनी पहले की हुई वासनाओं का स्मरण कर! पहले उनका स्मरण कर ले।
नई यात्रा पर निकलने के पहले पुराने अनुभव को खयाल में ले ले। नहीं, फिर आप यात्रा पर नहीं निकल पाएंगे। वासना वहीं ठिठककर खड़ी हो जाएगी। इतना होश काफी है मन की यांत्रिकता को तोड़ देने के लिए।
- ओशो, ईशावास्योपनिषद,चैप्टर #11 वह शून्य है — Ishavasya Upanishad by Osho .
सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:-
सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।
मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै (ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो से यह इंस्टाग्राम पर ओशो का ऑडियो लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें। ) और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।
नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।
Originally published at https://philosia.in on July 1, 2024.