सत्वबुद्धि और असतबुद्धि में अंतर | Philosia: The Art of seeing all

Sandeep Kumar Verma
14 min readSep 25, 2024

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सत्वबुद्धि और असतबुद्धि में अंतर- यह पोस्ट लिखने के लिये नीचे दिये ओशो की अपने संन्यासियों के साथ चर्चाओं को कुछ संपादित किया गया है ताकि छोटे में सार बात कही जा सके। पूरी चर्चा किंडल पर फ्री में पढ़ने के लिए पोस्ट के अंत में लिंक दिया है।

जहां ज़रूरी लगा वहाँ ब्रैकेट में मैंने अपने अनुभव से कुछ विस्तार करने का प्रयास किया है ताकि ओशो का मंतव्य स्पष्ट किया जा सके।

19 नवम्बर 1967, सुबह, चुआंग त्जु ऑडिटोरियम, पुणे ओशो अपने सन्यासियों के साथ भारतीय मनीषा के माउंट एवरेस्ट अष्टावक्र महागीता, भाग 4, चैप्टर #39 “विषयों में विरसता मोक्ष है” पर चर्चा कर रहे हैं।

‘सत्वबुद्धि वाला पुरुष जैसे-तैसे, यानी थोड़े-से उपदेश से भी कृतार्थ होता है। असत बुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी उसमें मोह को ही प्राप्त होता है।’

यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्व बुद्धिमान्‌।

आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति।।

“पृथ्वी वर्तुलाकार है। और जीवन की सारी गतिविधि वर्तुलाकार है। देखते हो, गर्मी आती, वर्षा आती, शीत आती, फिर गर्मी आ जाती है-घूम गया चाक। आकाश में तारे घूमते, सूरज घूमता सुबह-सांझ, चांद घूमता, बचपन, जवानी, बुढ़ापा घूमता-तुम देखते हो, चाक घूम जाता है! जीवन में सभी वर्तुलाकार है। इसलिए पूरब के शास्त्र का जो वक्तव्य है वह भी वर्तुलाकार है। वह जीवन के बहुत अनुकूल है। वही चाक फिर घूम जाता है, भला भूमि नयी हो। बैलगाड़ी पर बैठे हो-चाक वही घूमता रहता है, भूमि नयी आती जाती है। अगर तुम चाक को ही देखोगे तो कहोगे: क्या पुनरुक्ति हो रही है! लेकिन अगर चारों तरफ तुम गौर से देखो तो वृक्ष बदल गये राह के किनारे के, जमीन की धूल बदल गई। कभी रास्ता पथरीला था, कभी रास्ता सम आ गया। सूरज बदल गया; सांझ थी, रात हो गई, चांद-तारे आ गए। चाक पर ध्यान रखो तो वही चाक घूम रहा है। लेकिन अगर पूरे विस्तार पर ध्यान रखो तो चाक वही है, फिर भी सब कुछ नया होता जा रहा है। इसे स्मरण रखना, नहीं तो यह खयाल आ जाए कि पुनरुक्ति है तो आदमी सुनना बंद कर देता है। सुनता भी रहता है, फिर कहता है: ठीक है, यह तो मालूम है।

पहला सूत्र: ‘सत्वबुद्धि वाला पुरुष जैसे-तैसे, यानी थोड़े-से उपदेश से भी कृतार्थ होता है। असत बुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी उसमें मोह को ही प्राप्त होता है।’

यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्व बुद्धिमान्‌।

आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति।।

जिसके पास थोड़ी-सी जागी हुई बुद्धि है वह तो थोड़े-से उपदेश से भी जाग जाता है, जरा-सी बात चोट कर जाती है। जिसके पास सोई हुई बुद्धि है उस पर तुम लाख चोटें करो, वह करवट ले-ले कर सो जाता है।

बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया एक सुबह। उसने आ कर बुद्ध के चरणों में प्रणाम किया और कहा कि शब्द से मुझे मत कहें, शब्द तो मैं बहुत इकट्ठे कर लिया हूं। शास्त्र मैंने सब पढ़ लिये हैं। मुझे तो शून्य से कह दें, मौन से कह दें। मैं समझ लूंगा। मुझ पर भरोसा करें।

बुद्ध ने उसे गौर से देखा और आंखें बंद कर लीं और चुप बैठ गए। वह आदमी भी आंख बंद कर लिया और चुप बैठ गया। बुद्ध के शिष्य तो बड़े हैरान हुए कि यह क्या हो रहा है।

पहले तो उसका प्र्रश्न ही थोड़ा अजीब था कि ‘बिना शब्द के कह दें और भरोसा करें मुझ पर और मैं शास्त्र से बहुत परिचित हो गया हूं, अब मुझे निःशब्द से कुछ खबर दें। सुनने योग्य सुन चुका; पढ़ने योग्य पढ़ चुका; पर जो जानने योग्य है, वह दोनों के पार मालूम होता है। मुझे तो जना दें। मुझे तो जगा दें! ज्ञान मांगने नहीं आया हूं। जागरण की भिक्षा मांगने आया हूं।’

एक तो उसका प्रश्न ही अजीब था, फिर बुद्ध का चुपचाप उसे देख कर आंख बंद कर लेना, और फिर उस आदमी का भी आंख बंद कर लेना, बड़ा रहस्यपूर्ण हो गया। बीच में बोलना ठीक भी न था, कोई घड़ी भर यह बात चली चुपचाप, मौन ही मौन में कुछ हस्तांतरण हुआ, कुछ लेन-देन हुआ।

वह आदमी बैठा-बैठा मुस्कुराने लगा आंख बंद किये ही किये। उसके चेहरे पर एक ज्योति आ गई। वह झुका, उसने फिर प्रणाम किया बुद्ध को, धन्यवाद दिया और कहा: ‘बड़ी कृपा। जो लेने आया था, मिल गया।’ और चला गया।

आनंद ने बुद्ध से पूछा कि ‘यह क्या मामला है?

क्या हुआ?

आप दोनों के बीच क्या हुआ?

हम तो सब कोरे के कोरे रह गए। हमारी पकड़ तो शब्द तक है, हमारी पहुंच भी शब्द तक है; निःशब्द में क्या घटा? हम तो बहरे के बहरे रह गए। हमें तो कुछ कहें, शब्दों में कहें।’

बुद्ध ने कहा: आनंद, तू अपनी जवानी में बड़ा प्रसिद्ध घुड़सवार था, योद्धा था।

घोड़ों में तूने फर्क देखा?

कुछ घोड़े होते हैं-मारो, मारो, बामुश्किल चलते हैं; मारो तो भी नहीं चलते-खच्चर जिनको हम कहते हैं। कुछ घोड़े होते हैं आनंद, मारते ही चल पड़ते हैं। और कुछ घोड़े ऐसे भी होते हैं कि मारने का मौका नहीं देते; तुम कोड़ा फटकारो, बस फटकार काफी है। कुछ घोड़े ऐसे भी होते हैं आनंद कि कोड़ा फटकारो भी मत, कोड़ा तुम्हारे हाथ में है और घोड़ा सजग हो जाता है। बात काफी हो गई। इतना इशारा काफी है।

और आनंद, ऐसे भी घोड़े तूने जरूर देखे होंगे, तू बड़ा घुड़सवार था, कि कोड़ा तो दूर, कोड़े की छाया भी काफी होती है। यह ऐसा ही घोड़ा था। इसको कोड़े की छाया काफी थी।

सत्वबुद्धि का अर्थ होता है: जो शब्द के बिना भी समझने में तत्पर हो गया। सत्वबुद्धि का अर्थ होता है: जो सत्य को सीधा-सीधा समझने के लिए तैयार है; जो आना-कानी नहीं करता; जो इधर-उधर नहीं देखता। जो सीधे-सीधे सत्य को देखता है वही सत्वबुद्धि है।

सत्व को देखने की प्रक्रिया आती कैसे है?

आदमी सत्वबुद्धि कैसे होता है?

इससे तुम उदास मत हो जाना कि अगर हम असतबुद्धि हैं तो हम क्या करें! सत्वबुद्धि होते तो समझ लेते। अब असतबुद्धि हैं तो क्या करें! और तुम्हारे शास्त्रों की जिन्होंने व्याख्या की है, उन्होंने भी कुछ ऐसा भाव पैदा करवा दिया है कि जैसे परमात्मा ने दो तरह के लोग पैदा किये हैं-सत्वबुद्धि और असत्वबुद्धि।

तो फिर तो कसूर परमात्मा का है, फिर तुम्हारा क्या! अब तुम्हारे पास असतबुद्धि है तो तुम करोगे भी क्या?

तुम्हारा बस क्या है?

तुम तो परतंत्र हो गये। नहीं, मैं इस भ्रांति को तोड़ना चाहता हूं। सत्वबुद्धि और असत्वबुद्धि ऐसी कोई दो बुद्धियाँ नहीं हैं। तुम न तो सत्वबुद्धि लेकर आते हो न असत्वबुद्धि लेकर आते हो।

इस जीवन के अनुभव से ही सत्वबुद्धि पैदा होती है या नहीं पैदा होती है। मेरी व्याख्या तुम खयाल में ले लो।

मेरी व्याख्या सत्वबुद्धि की है: जो व्यक्ति जीवन के अनुभवों से गुजरता है और अनुभवों से बचना नहीं चाहता है। जो तथ्य को स्वीकार करता है और तथ्य का साक्षात्कार करता है, वह धीरे-धीरे सत्व को जानने का हकदार हो जाता है। तथ्य के साक्षात्कार से सत्य के साक्षात्कार का अधिकार उत्पन्न होता है। उसकी बुद्धि सत्वबुद्धि हो जाती है।

जैसे, फर्क समझो। एक युवा व्यक्ति मेरे पास आता और कहता है: ‘मुझे कामवासना से बचाएं।’ इसका कोई अनुभव नहीं है कामवासना का। यह अभी कच्चा है। इसने अभी जाना भी नहीं है। यह कामवासना से बचने की जो बात कर रहा है, यह भी किसी से सीख ली है। यह उधार है। सुन लिये होंगे किसी संत के वचन, किसी संत ने गुणगान किया होगा ब्रह्मचर्य का। यह लोभ से भर गया है। ब्रह्मचर्य का लोभ इसके मन में आ गया है।

इसे बात तर्क से जंच गई है। लेकिन अनुभव तो इसका गवाही हो नहीं सकता, अनुभव इसका है नहीं। इसकी बुद्धि को स्वीकार हो गई है। इसने बात समझ ली-गणित की थी। लेकिन इसके अनुभव की कोई साक्षी इसकी बुद्धि के पास नहीं है।

तो यह तथ्य को अभी इसने अनुभव नहीं किया। और अगर यह ब्रह्मचर्य की चेष्टा में लग जाये तो लाख उपाय करे, यह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न हो सकेगा। इसके पास ब्रह्मचर्य को समझने की सत्वबुद्धि ही नहीं है।

एक आदमी है, जो अभी दौड़ा नहीं जगत में और दौड़ने के पहले ही थक गया है; जो कहता है, मुझे तो बचाएं इस आपा-धापी से-इसे आपा-धापी का कोई निज अनुभव नहीं है। इसने दूसरों की बातें सुन ली हैं; जो थक गये हैं, उनकी बातें सुन ली हैं।

लेकिन जो थक गये हैं, उनका अपना अनुभव है। यह अभी थका नहीं है खुद। अभी इसके जीवन में तो ऊर्जा भरी है। अभी महत्वाकांक्षा का संसार खुलने ही वाला है और यह उसे रोक रहा है। यह रोक सकता है चेष्टा करके। लेकिन वही चेष्टा इसके जीवन में अवरोध बन जाएगी।

अनुभव से व्यक्ति सत्व को उपलब्ध होता है। इसलिए मैं कहता हूं: जो भी तुम्हारे मन में कामना-वासना हो, जल्दी भागना मत। कच्चे-कच्चे भागना मत।

फल पक जाए तो अपने से गिरता है। तब फल सत्व को उपलब्ध होता है। कच्चा फल जबर्दस्ती तोड़ लो, सड़ेगा और घाव भी वृक्ष को लगेगा। और जबर्दस्ती भी करनी पड़ेगी। और पके फल की जो सुगंध है, वह भी उसमें नहीं होगी, स्वाद भी नहीं होगा। कड़वा और तिक्त होगा। अभी इसे वृक्ष की जरूरत थी।

वृक्ष तो किसी फल को तभी छोड़ता है, जब देखता है कि जरूरत पूरी हो गई है। वृक्ष से फल को जो मिलना था मिल गया, सारा रस मिल गया; अब इस वृक्ष में इस फल को लटकाए रखना बिलकुल अर्थहीन है। यह फल कृतार्थ हो चुका। यह इसकी यात्रा का क्षण आ गया। अब वृक्ष इसको छुटकारा देगा, छुट्टी देगा, इसे मुक्त करेगा, ताकि वृक्ष अपने रस को किसी दूसरे कच्चे फल में बहा सके; ताकि कोई दूसरा कच्चा फल पके।

सत्वबुद्धि का मेरा अर्थ है: जीवन के अनुभव से ही तुम्हारे जीवन की शैली निकले तो तुम धीरे-धीरे सत्व को उपलब्ध होते जाओगे। और जब कोई सत्व को उपलब्ध व्यक्ति सुनने आता है तो तत्क्षण बात समझ में आ जाती है। कोड़ा नहीं, कोड़े की छाया भी काफी है।

अब जिस घोड़े ने कभी कोड़ा ही नहीं देखा और कोई कभी इस पर सवार भी नहीं हुआ और कभी किसी ने कोड़ा मारा भी नहीं और जिसे कोड़े की पीड़ा का कोई अनुभव नहीं है, वह कोड़े की छाया से नहीं चलने वाला। वह तो कोड़े की चोट पर भी नहीं चलेगा। वह तो कोड़े की चोट से हो सकता है और अड़ कर खड़ा हो जाए।

जिस बात का अनुभव नहीं है उस बात से हमारे जीवन की समरसता नहीं होती।

‘सत्वबुद्धि वाला पुरुष जैसे-तैसे, थोड़े-से उपदेश से भी कृतार्थ होता है।’

जैसे-तैसे!

सत्व बुद्धिमान्‌ यथातथोपदेशेन…।

ऐसा छोटा-मोटा भी मिल जाए उपदेश, बुद्ध के वचनों की एक कड़ी पकड़ में आ जाए, बस काफी हो जाती है। बुद्ध के दर्शन मिल जाएं, काफी हो जाता है। किसी जाग्रत पुरुष के साथ दो घड़ी चलने का मौका मिल जाए, काफी हो जाता है। लेकिन यह काफी तभी होता है जब जीवन के अनुभव से इसका मेल बैठता हो।

जैसे-तैसे भी हाथ में कुछ बूंदें भी लग जाएं तो सागर का पता मिल जाता है; कृतार्थ हो जाता है व्यक्ति। ‘कृतार्थ’ शब्द बड़ा सुंदर है।

‘कृतार्थ’ का अर्थ होता है: सुन कर ही न केवल अर्थ प्रगट हो जाता है जीवन में, बल्कि कृति भी प्रगट हो जाती है। सुन कर ही कृति और अर्थ दोनों फलित हो जाते हैं।

कभी ऐसा होता है, कोई बात सुनकर ही तुम बदल जाते हो। तब तुम कृतार्थ हुए। सुना नहीं कि बदल गये! जैसे अब तक जो बात सुनी नहीं थी, उसके लिये तुम तैयार तो हो ही रहे थे। बस कोई आखिरी बात को जोड़ देने वाला चाहिये था। किसी ने जोड़ दी तो कृतार्थ हो गये। फिर सुन कर कुछ करना नहीं पड़ता-सुनने में ही हो जाता है।

यह तो श्रेष्ठतम साधक की अवस्था है, सत्वबुद्धि वाले साधक की। वह बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को या अष्टावक्र को सुन कर ऐसा नहीं पूछता कि महाराज आपकी बात तो समझ में आ गई, अब इसे करें कैसे?

समझ में आ गई तो बात खतम हो गई, अब करने की बात पूछनी नहीं है। तुम्हें मैंने दिखा दिया कि यह दरवाजा है, जब बाहर जाना हो तो इससे निकल जाना; यह दीवाल है, इससे मत निकलना, अन्यथा सिर टूट जाएगा।

तुम कहोगे: ‘समझ में आ गई बात, लेकिन मन तो हमारा दीवार से निकलने का ही करता है। इससे हम कैसे बचें? और मन तो हमारा दरवाजे से निकलने में उत्सुक ही नहीं होता। इसको हम कैसे करें?’

तो बात समझ में नहीं आई। सिर्फ बुद्धि ने पकड़ ली, तुम्हारे प्राणों तक नहीं पहुंची। तुम इसके लिए राजी न थे। अभी तुम्हें दीवार में ही दरवाजा दिखता है, इसलिए मन दीवार से ही निकलने का करता है।

लेकिन जो बहुत बार दीवार से टकरा चुका है (उसे अनुभव हो चुका है दीवाल से टकराने के दर्द का और अब उसको और सहने को राज़ी नहीं है) उसे दिखाते ही, कहते ही, शब्द पड़ते ही बोध आ जाएगा। वह कृतार्थ हो गया।

वह यह नहीं पूछेगा: ‘कैसे करें?’ वह कहेगा कि बस अभी तक एक जरा-सी कड़ी खोई-खोई सी थी, वह आपने पूरी कर दी। गीत ठीक बैठ गया। अब कोई अड़चन न रही।

‘सत्वबुद्धि वाला पुरुष जैसे-तैसे यानी थोड़े उपदेश से भी कृतार्थ होता है। असतबुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी उसमें मोह को ही प्राप्त होता है।’

और बड़े आश्चर्य की बात है, सत्वबुद्धि वाला व्यक्ति तो ज्ञान से मुक्त होता है। ज्ञान मुक्ति लाता है। और असतबुद्धि वाला व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त नहीं होता, उल्टे ज्ञान के ही मोह में पड़ जाता है।

इसी तरह तो लोग हिंदू बन कर बैठ गये, मुसलमान बन कर बैठ गये, ईसाई बन कर बैठ गये।

(मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है की हिंदू, मुसलमान या ईसाई होना ग़लत है या असतबुद्धि है बल्कि इनमें कट्टरता रखना और किसी की सुनी बातों को सच मान लेना वह असतबुद्धि है। सारे धर्म उनको मानने वाले लोगों में से सबसे कब बुद्धि वाले व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं ताकि सबके लिए उनका पालन आसान हो जाए, लेकिन हमको यदि जीवन के अनुभव से उनसे ज़्यादा समझ है तो हमको हमारे लिए जो जो ग़ैरज़रूरी है उनको अपने जीवन से हटाते जाने का काम सत्वबुद्धि या ख़ुद की समझ वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं और वे समाज के बाक़ी लोगों को कोई रुकावट ना डालें यह भी ज़रूरी है।)

जीसस से उन्हें मुक्ति नहीं मिली; जीसस को बंधन बना कर बैठ गये। अब जीसस की उन्होंने हथकड़ियां ढाल लीं। राम ने उन्हें छुटकारा नहीं दिलवाया; राम तो उन्हें छुटकारा ही दिलवाते थे, लेकिन तुम छूटना नहीं चाहते।

तो तुम राम की भी जंजीर ढाल लेते हो-तुम हिंदू बन कर बैठ गये। कोई जैन बन कर बैठ गया है, कोई बौद्ध बन कर बैठ गया। बुद्ध बनना था, बौद्ध बन कर बैठ गये। बुद्ध बनते तो मुक्त हो जाते। बौद्ध बन गये, तो शब्दों का, सिद्धांतों का, शास्त्रों का जाल हो गया।

अब तुम लड़ोगे, काटोगे, पीटोगे, मारोगे, तर्क-विवाद करोगे, सिद्ध करोगे कि मैं ठीक हूं और दूसरा गलत है; लेकिन तुम्हारे जीवन से कोई सुगंध न उठेगी, तुम्हारे सत्य का तुम प्रमाण न बनोगे।

तुम विवाद करोगे, तर्क करोगे।

तुम कहोगे: हमारे शास्त्र ठीक हैं, इनसे मुक्ति मिलती है। लेकिन तुम खुद प्रमाण होओगे कि तुम्हें मुक्ति नहीं मिली है। यह बड़ी हैरानी की बात है। तुम्हारे शास्त्र से मुक्ति मिलती है तो तुम तो मुक्त हो जाओ!

अष्टावक्र महागीता, भाग चार — Ashtavakra Mahageeta, Vol. 4: युग बीते पर सत्य न बीता, सब हारा पर सत्य न हारा by Osho .

इसी संबंध में ओशो पलटुदास के गीतों पर चर्चा करते हुए कहते हैं:-

दास पलटू कहै, साहिब है आप में,

वह परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है।

अपनी समझ बिनु दोउ हारैं।

मुसलमान और हिंदू अपनी खुद की समझ न होने के कारण हार गए हैं।

अपनी समझ चाहिए। न तो कुरान तुम्हारी समझ बन सकता है, न वेद तुम्हारी समझ बन सकते हैं। तुम्हें अपनी समझ ही चाहिए।

तुम अपनी समझ को निखारो।

तुम जीवन के अनुभव से अपनी समझ को जगाओ। जीवन को खुली आंख से देखो। पर्दे हटाओ संस्कारों के। द्वार खोलो।

अपनी समझ को जगाओ।

अपनी समझ ही काम आएगी।

(यह अपनी समझ बनाने के लिए जीवन में नये नये प्रयोग करके, उनसे मिले अनुभव से सीखना ही सत्वबुद्धि को जन्म देता है और यह कोई भी, कभी भी शुरू कर सकता है क्योंकि इसमें कभी देर होती ही नहीं है। जब शुरू किया तभी उसके लिए सही मौसम है यह समझना ज़रूरी है।)

दास पलटू कहै, साहिब है आप में, अपनी समझ बिनु दोउ हारैं।।

संतन के बीच में टेढ़ रहें मठ बांधि संसार रिझावते हैं।

और पंडित-पुरोहित हैं, मुल्ला-मौलवी हैं, संतों के पास जाने से डरते हैं। संतों का नाम उन्हें घबड़ाता है। संतों के पास भी ले जाओ तो वहां अकड़ कर खड़े हो जाते हैं। यही पत्थर की मूर्ति के सामने सिर झुका देंगे, कबर के सामने साष्टांग दंडवत कर लेंगे; लेकिन जिंदा संत के सामने अकड़ कर खड़े हो जाएंगे। संतन के बीच में टेढ़ रहें वहां तो बिलकुल खड़े हो जाएंगे-अडिग!

वहां झुक न सकेंगे।

मठ बांधि संसार रिझावते हैं।

मठ-मंदिर बनाएंगे और संसार को झूठे प्रलोभन देंगे। स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय। लोगों को फसाएंगे।

दस-बीस सिष्य परमोधि लिया,

और यह दुनिया कुछ ऐसी है कि यहां मूढ़ से मूढ़ आदमी भी दस-बीस शिष्य पा सकता है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। यहां इतने एक से एक पहुंचे हुए मूढ़ पड़े हैं कि अगर तुमने तय कर लिया तो तुम्हें भी दस-बीस शिष्य मिल जाएंगे, इसमें कोई अड़चन नहीं है। इसमें अड़चन ही क्या है!

दस-बीस सिष्य परमोधि लिया,

दस-बीस शिष्य के कान फूंक दिए। सबसे वह गोड़ धरावते हैं! फिर वे दस-बीस उनके पैर दाबने लगे। फिर दूसरों में भी सनक चढ़ती है। ये बीमारियां छूत की होती हैं; लगने लगती हैं दूसरों में भी, कि जब दस-बीस पैर दाब रहे हैं तो कुछ होगा। आदमी इतना बंदर जैसा है!

(यह बंदर जैसी समझ ना होना ही सत्वबुद्धि है और यह जीवन में प्रयोग करके देखते रहने से धीरे धीरे बढ़ती जाती है)

-ओशो, अजहूं चेत गंवार, #19, शून्य की झील: झील में कमल । Read on the go for free — download Kindle for Android, iOS, PC, Mac and more.

सांसारिक जीवन जीते हुए ओशो के प्रयोगों को जीवन में उतरकर जो मैंने आध्यात्मिक यात्रा की है उसके अनुभव से कुछ सुझाव:- सांसारिक जीवन को जीवन संपूर्णता के साथ जीना, जीवन को एक प्रामाणिक रूप में जीना यानी भीतर बाहर एक और ईमानदारी से जीना, लोगोंकी बिना भेदभाव के निःस्वार्थ भाव से सेवा करना और सभी बंधनों (धार्मिक, शैक्षिक, जाति, रंग आदि) से मुक्त होना ये तीन मेरे जीवन में महत्वपूर्ण उत्प्रेरक साबित हुए हैं जो किसी को गहराई तक गोता लगाने में मदद कर सकते हैं।

मैंने सुबह दांतों पर ब्रश करते समय प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया भीतर की आँख खोलने का प्रयोग या होंश का प्रयोग विचार शून्य अवस्था का अनुभव प्राप्त करने का उपाय ना रहकर, अब होंश का प्रयोग ना मेरे लिए काम करने का तरीका हो गया है। ( instagram पर होंश) हो सकता है कि आपको भी यह उपयुक्तलगे अन्यथा अधिकांश लोगों के लिए ओशो का सुझाया गतिशील ध्यान है। लगभग 500 साल पहले भारतीय रहस्यवादी गोरखनाथद्वारा खोजी गई और ओशो द्वारा आगे संशोधित की गई 110 अन्य ध् यान तकनीकें हैं जिनका प्रयोग किया जा सकताहै (ओशो की किताब “प्रीतम छवि नैनन बसी”, चेप्टर #11 मेरा संदेश है, ध्यान में डुबो से यह इंस्टाग्राम पर ओशो का ऑडियो लिया गया है। इस किताब को फ्री पढ़ने के लिए osho.com पर लॉगिन करके Reading>online libravy पर हिन्दी बुक्स सेलेक्ट करें। ) और नियमित जीवन में उपयुक्त अभ्यास किया जा सकता है।

नमस्कार ….. मैं अपनी आंतरिक यात्रा के व्यक्तिगत अनुभवों से अपनी टिप्पणियाँ लिखता हूँ। इस पोस्ट में दुनिया भरके रहस्यवादियों की शिक्षाएँ शामिल हो सकती हैं जिन्हें मैं आज भी मानने लायक समझता हूँ। मेरे बारे में अधिकजानकारी के लिए और मेरे साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुड़ने के लिए, मेरे सोशल मीडिया लिंक से जुड़ने केलिए वेबसाइट https://linktr.ee/Joshuto पर एक नज़र डालें, या मेरे यूट्यूब चैनल की सदस्यता लें और/यापॉडकास्ट आदि सुनें।

Originally published at https://philosia.in on September 25, 2024.

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Sandeep Kumar Verma
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Written by Sandeep Kumar Verma

Spiritual seeker conveying own experiences. Ego is only an absence, like darkness, bring in the lamp_awareness&BeA.LightUntoYourself. https://linktr.ee/Joshuto

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